जो दुनिया पे छाए-छाए फिरते हैं
मौत से इतना क्यूँ घबराए फिरते हैं
सन्नाटे पसरे हैं मन की वादी में
फिर भी कितना शोर मचाए फिरते हैं
ख़ुद का बोझ नहीं उठता जिन लोगों से
वो धरती को सर पे उठाए फिरते हैं
ख़ुद को ज़रा-सी ऑंच लगी तो चीख़ पड़े
जो दुनिया में आग लगाए फिरते हैं
उनके लफ्ज़ों में ही ख़ुशबू होती है
जो सीने में दर्द छुपाए फिरते हैं
क्या होगा ‘आज़ाद’ भला इन ग़ज़लों से
लोग अदब से अब कतराए फिरते हैं
Sunday, November 2, 2014
जो दुनिया पे छाए-छाए फिरते हैं / अज़ीज़ आज़ाद
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
0 comments :
Post a Comment