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Monday, November 24, 2014

लय का भीगा कंठ / अरुण देव

कह रहा था मैं कुछ
ठीक उसी तरह जैसे बांसुरी के इक छोर पर कहती है हवा
और जो देर तक गूंजता रहता है
मन की बावड़ी में
जिसकी सीढ़ी पर बैठे-बैठे
भीग जाती हैं आँखें

यह किसका रुदन है
कौन सी भाषा में हिचकियाँ बुदबुदाती हैं अपने पश्चाताप

न जाने क्या कहा हवा ने
और क्या तो सुना बाँस के उस खोखले टुकड़े ने
जहां कब से बैठा था वह सघन दुःख

जो इस धरती का है
किसी दरवेश, फकीर, संत का है
कि प्रेम रत जोड़ो के सामूहिक वध पर
विलाप करते उस क्रौंच का है
जो रो रहा है तबसे
जब अर्थ तक पहुचने के लिए
शब्दों के पुल तक न थे
और तभी से भीगा है
लय का कंठ

और जिसे कहने की कोशिश में रूँध जाता है मेरा गला.

अरुण देव

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