तिर्याक़[1]
जब तिरी उदास अँखड़ियों से
पल-भर को चमक उठे थे आँसू
क्या-क्या न गुज़र गई थी दिल पर!
अब मेरे किए मलूल[2]थी तू
कहने को वो ज़िंदगी का लम्हा[3]
पैमाने-वफ़ा [4] से कम नहीं था
माज़ी [5] की तवील[6] तल्ख़ियों[7] का!
जैसे मुझे कोई ग़म नहीं था
तू! मेरे लिए ! उदास इतनी
क्या था ये अगर करम[8] नहीं था
तू आज भी मेरे सामने है
आँखों में उदासियाँ न आँसू
एक तंज़[9] है तेरी हर अदा में
चुभती है तिरे बदन की ख़ुश्बू[10]
या अब मेरा ज़ह्र[11]पी चुकी तू
Monday, November 24, 2014
तिर्याक़ / फ़राज़
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