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Monday, November 24, 2014

नया जनम ले रही है चाहत / ओम निश्चल

ये सर्द मौसम,
ये शोख लम्हे
फ़िजा में आती हुई सरसता,
खनक-भरी ये हँसी कि जैसे
क्षितिज में चमके हों मेघ सहसा ।

हुलस के आते हवा के झोंके
धुएँ के फाहे रुई के धोखे
कहीं पे सूरज बिलम गया है
कोई तो है, जो है राह रोके,
किसी के चेहरे का ये भरम है
हो जैस पत्तों में सूर्य अटका ।

नई हवाओं की गुनगुनाहट
ये ख़ुशबुओं की अटूट बारिश,
नए बरस की ये दस्तकें हैं
नए-से सपने नई-सी ख़्वाहिश
नया जनम ले रही है चाहत
मचल रहे हैं दिल रफ़्ता-रफ़्ता ।

चलो कि टूटे हुओं को जोड़ें,
जमाने से रूठे हुओं को मोड़ें
अन्धेरे में इक दिया तो बालें
हम आँधियों का गुरूर तोड़ें,
धरा पे लिख दें हवा से कह दें
है मँहगी नफ़रत औ’ प्यार सस्ता ।

नए ज़माने के ख़याल हैं हम
नए उजालों के मुंतजिर हम,
मगर मुहब्बत के राजपथ के
बड़े पुराने हैं हमसफ़र हम,
अभी भी मीलों है हमको चलना
अभी भी बाक़ी है कितना रस्ता ।

अपन फ़कीरी में पलने वाले
मगर हैं दिल में सुकून पाले
थके नहीं हैं हम इस सफ़र में
भले ही पाँवों में दिखते छाले,
अभी उम्मीदें हैं अपनी रोशन
अभी है माटी में प्यार ज़िन्दा ।

ओम निश्चल

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