Pages

Friday, November 7, 2014

आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ / ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ
पीछे पीछे अपनी ख़ैर मनाता हूँ

पत्थर की सूरत बे-हिस हो जाता हूँ
कैसी कैसी चोंटे सहता रहता हूँ

आख़िर अब तक क्यूँ तुम्हें आया मैं नज़र
जाने कहाँ कहाँ तू देखा जाता हूँ

साँसों के आने जाने से लगता है
इक पल जीता हूँ तो इक पल मरता हूँ

दरिया बालू मोरम ढो कर लाता है
मैं उस का सब माल आड़ा ले आता हूँ

अब तो मैं हाथों में पत्थर ले कर अभी
आईने का सामना करते डरता हूँ

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

0 comments :

Post a Comment