पैदा कोई राही कोई रहबर नही होता
बे हुस्न-ए-अमल कोई भी बदतर नही होता
सच बोलते रहने की जो आदत नही होती
इस तरह से ज़ख्मी ये मेरा सर नही होता
कुछ वस्फ तो होता है दिमाग़ों दिलों में
यूँ हि कोई सुकरात व सिकन्दर नही होता
दुश्मन को दुआ दे के ये दुनिया को बता दो
बाहर कभी आपे से समुन्दर नही होता
वह शख़्स जो खुश्बू है वह महकेगा अबद तक
वह क़ैद माहो साल के अन्दर नहीं होता
उन ख़ाना बदोशों का वतन सारा जहाँ है
जिन ख़ानाबदोशोँ का कोई घर नहीं होता
Saturday, April 5, 2014
पैदा कोई राही कोई रहबर नही होता / अनवर जलालपुरी
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