याद यूँ होश गंवा बैठी है
जिस्म से जान जुदा बैठी है
राह तकना है अबस सो जाओ
धूप दीवार पे आ बैठी है
आशियाने का ख़ुदा ही हाफ़िज़
घात में तेज़ हवा बैठी है
दश्त-ए-गुल-चीं से मुरव्वत कैसी
शाख़ फूलों को गंवा बैठी है
कैसे आए किसी गुलशन में बहार
दस्त में आबला-पा बैठी है
शहर आसीब-ज़दा लगता है
कूचे कूचे में बला बैठी है
चार कमरों के मकाँ में अपने
इक पछल-पाई भी आ बैठी है
शाएरी पेट की ख़ातिर ‘जावेद’
बीच बाज़ार के आ बैठी है
Saturday, April 12, 2014
याद यूँ होश गंवा बैठी है / अब्दुल्लाह 'जावेद'
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