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Wednesday, April 16, 2014

वफ़ा के भेस में कोई रक़ीब-ए-शहर भी है / फ़राज़

वफ़ा के भेस में कोई रक़ीब-ए-शहर भी है
हज़र! के शहर के क़ातिल तबीब-ए-शहर भी है

वही सिपाह-ए-सितम ख़ेमाज़न है चारों तरफ़
जो मेरे बख़्त में था अब नसीब-ए-शहर भी है

उधर की आग इधर भी पहुँच न जाये कहीं
हवा भी तेज़ है जंगल क़रीब-ए-शहर भी है

अब उस के हिज्र में रोते हैं उसके घायल भी
ख़बर न थी के वो ज़ालिम हबीब-ए-शहर भी है

ये राज़ नारा-ए-मन्सूर ही से हम पे ख़ुला
के चूब-ए-मिम्बर-ए-मस्जिद सलीब-ए-शहर भी है

कड़ी है जंग के अब के मुक़ाबिले पे "फ़राज़"
अमीर-ए-शहर भी है और खतीब-ए-शहर भी है

अहमद फ़राज़

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