न ही कोई दरख़्त हूँ न सायबान हूँ
बस्ती से जरा दूर का तनहा मकान हूँ
चाहे जिधर से देखिये बदशक्ल लगूंगा
मैं जिंदगी की चोट का ताज़ा निशान हूँ
कैसे कहूं कि मेरा तवक्को करो जनाब
मैं खुद किसी गवाह का पलटा बयान हूँ
आँखों के सामने ही मेरा क़त्ल हो गया
मुझको यकीन था मैं बड़ा सावधान हूँ
तेरी नसीहतों का असर है या खौफ है
मुंह में जुबान भी है, मगर बेजुबान हूँ
बोई फसल ख़ुशी की ग़म कैसे लहलहाए
या तू ख़ुदा है, या मैं अनाड़ी किसान हूँ
एक बार आके देख तो ‘आनंद’ का हुनर
लाचार परिंदों का, हसीं आसमान हूँ
Thursday, April 17, 2014
न ही कोई दरख़्त हूँ न सायबान हूँ / आनंद कुमार द्विवेदी
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
0 comments :
Post a Comment