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Thursday, April 17, 2014

सजल के शोर ज़मीनों में आशियाना करे / इफ़्तिख़ार आरिफ़

सजल के शोर ज़मीनों में आशियाना करे
न जाने अब के मुसाफ़िर कहाँ ठिकाना करे

बस एक बार उसे पढ़ सकूँ ग़ज़ल की तरह
फिर उस के बाद तो जो गर्दिश-ए-ज़माना करे

हवाएँ वो हैं के हर ज़ुल्फ़ पेच-दार हुई
किसे दिमाग़ के अब आरज़ू-ए-शाना करे

अभी तो रात के सब निगह-दार जागते हैं
अभी से कौन चराग़ों की लौ निशाना करे

सुलूक में भी वही तज़करे वही तशहीर
कभी तो कोई इक एहसान ग़ाएबाना करे

मैं सब को भूल गया ज़ख़्म-ए-मुंदमिल की मिसाल
मगर वो शख़्स के हर बात जारेहाना करे

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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