निज़ाम-ए-बसत ओ कुशाद-ए-मानी सँवारते हैं
हम अपने शेरों में तेरा पैकर उतारते हैं
अजब तिलिस्मी-फ़िज़ा है सारी बालाएँ चुप हैं
ये किस बयाबाँ में रात दिन हम गुज़ारते हैं
ग़ुबार-ए-दुनिया में गुम है जब से सवार-ए-वहशत
अतश-अतश दश्त ओ कोह ओ दरिया पुकारते हैं
मुसाफ़िरान-ए-गुमाँ रहे क्यूँ कमर-ख़मीदा
चलो ये पुश्तारा-ए-तमन्ना उतारते ळैं
जबीन-ए-अहल-ए-ग़रज़ पे कोई मुकाल्मा क्या
जहाँ तहाँ हाजतों की झोली पसारते हैं
Wednesday, April 16, 2014
निज़ाम-ए-बसत ओ कुशाद-ए-मानी सँवारते हैं / अमीर हम्ज़ा साक़िब
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