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Friday, October 31, 2014

सहर का हुस्न गुलों का शबाब देता हूँ / ख़ुर्शीद अहमद 'जामी'

सहर का हुस्न गुलों का शबाब देता हूँ
नई ग़ज़ल को नई आब ओ ताब देता हूँ

मेरे लिए हैं अँधेरों की फाँसियाँ लेकिन
तेरी सहर के लिए आफ़ताब देता हूँ

वफ़ा की प्यार की ग़म की कहानियाँ लिख कर
सहर के हाथ में दिल की किताब देता हूँ

गुज़र रहा है जो जे़हन-ए-हयात से ‘जामी’
शब-ए-फिराक़ को वो माहताब देता हूँ

ख़ुर्शीद अहमद 'जामी'

भरोसा / आकांक्षा पारे

भरोसा बहुत ज़रूरी है
इन्सान का इन्सान पर

यदि इन्सान तोड़ता है यकीन
तब
इन्सान ही कायम करता है इसे दोबारा

भरोसे ने ही जोड़ रखें हैं पड़ोस
भरोसे पर ही चलती है कारोबारी दुनिया
भरोसे पर ही
आधी दुनिया
उम्मीद करती है अच्छे कल की

आज भी सिर्फ़
भरोसे पर ही
ब्याह दी जाती हैं बेटियाँ

आकांक्षा पारे

हम कब शरीक होते हैं / अकबर इलाहाबादी

हम कब शरीक होते हैं दुनिया की ज़ंग में
वह अपने रंग में हैं, हम अपनी तरंग में

मफ़्तूह[1] हो के भूल गए शेख़ अपनी बहस
मन्तिक़[2] शहीद हो गई मैदाने ज़ंग में

अकबर इलाहाबादी

दो शे'र / अख़्तर अंसारी

1.
मेरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर
ज़माना अपने लिए होशियार कैसा है.

2.
याद-ए-माज़ी अज़ाब है या रब
छीन ले मुझ से हाफ़िज़ा मेरा

अख़्तर अंसारी

निहाल सिंह / अच्युतानंद मिश्र

बीबी-बच्चों की याद
आती हैं निहाल सिंह ?

निहाल सिंह के गाँव की मिट्टी
अब तक चिपकी है
उसके पैरों से
पर निहाल सिंह का पैर
बँधा है फौज के जूते से

निहाल सिंह का बचपन
अब तक टँगा है
गाँव के बूढ़े पीपल के पेड़ पर
और गाँव की हरियाली
हरी दूब की तरह
मन की मिट्टी को
पकड़े हुए है

बहुत उतरा हुआ चेहरा है
निहाल सिंह का
उसकी छुट्टी की
दरख़्वास्त नामंज़ूर हो गई

गाँव की मिट्टी
और बीबी-बच्चों का साथ
कितने छोटे सपने हैं
निहाल सिंह ?

वैसे गाँव की सड़क
अब भी उतनी भी तंग है
जितनी कल थी

निहाल सिंह, तुम तो
तंग सड़कों के ख़िलाफ़
निकले थे

अच्छा ! शहर में सपने तंग हैं
बात तो ठीक कहते हो निहाल सिंह
‘बड़े सपने तंग सड़कों पर
ही देखे जाते हैं’

सच कहते हो निहाल सिंह
वो सपनों के ख़िलाफ़ ही तो
खड़ी करते हैं फौजें

कैसा अच्छा सपना है
निहाल सिंह
‘एक दिन उनके ख़िलाफ़
खड़ी होंगी फौजें’ !

अच्युतानंद मिश्र

शैदाए वतन / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

हम भी दिल रखते हैं सीने में जिगर रखते हैं,
             इश्क़-ओ-सौदाय वतन रखते हैं, सर रखते हैं ।
माना यह ज़ोर ही रखते हैं न ज़र रखते हैं,
             बलबला जोश-ए-मोहब्बत का मगर रखते हैं ।
कंगूरा अर्श का आहों से हिला सकते हैं,
             ख़ाक में गुम्बदे-गरर्दू को मिला सकते हैं ।।

शैक़ जिनको हो सताने का, सताए आएँ;
             रू-ब-रू आके हों, यों मुँह न छिपाए, आएँ ।
देख लें मेरी वफ़ा आएँ, जफ़ाएँ आएँ,
             दौड़कर लूँगा बलाएँ मैं बलाए आएँ ।
दिल वह दिल ही नहीं जिसमें कि भरा दर्द नहीं,
             सख्तियाँ सब्र से झेले न जो वह मर्द नहीं ।।

कैसे हैं पर किसी लेली के गिरिफ़्तार नहीं,
             कोहकन है किसी शीरीं से सरोकार नहीं ।
ऐसी बातों से हमें उन्स नहीं, प्यार नहीं,
             हिज्र के वस्ल के क़िस्से हमें दरकार नहीं ।
जान है उसकी पला जिससे यह तन अपना है,
             दिल हमारा है बसा उसमें, वतन अपना है ।।

यह वह गुल है कि गुलों का भी बकार इससे है,
             चमन दहर में यक ताज़ा बहार इससे है ।
बुलबुले दिल को तसल्ली ओ’ करार इसके है,
             बन रहा गुलचीं की नज़रों में य्ह खार इससे है।
चर्ख-कजबाज़ के हाथों से बुरा हाल न हो,
             यह शिगुफ़्ता रहे हरदम, कभी पामाल न हो ।।

आरजू है कि उसे चश्मए ज़र से सींचे,
             बन पड़े गर तो उसे आवे-गुहर से सींचे ।
आवे हैवां न मिले दीदये तर से सींचे,
             आ पड़े वक़्त तो बस ख़ूने जिगर से सींचे ।
हड्डियाँ रिज़्के हुमाँ बनके न बरबाद रहें,
             घुल के मिट्टी में मिलें, खाद बने याद रहे ।।

हम सितम लाख सहें शायर-ए-बेदाद रहें,
             आहें थामे हुए रोके हुए फ़रियाद रहें ।
हम रहें या न रहें ऐसे रहें याद रहें,
             इसकी परवाह है किसे शाद कि नाशाद रहें ।
हम उजड़ते हैं तो उजड़ें वतन आबाद रहे,
             हो गिरिफ़्तार तो हों पर वतन आज़ाद रहे ।।

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा / 'असअद' बदायुनी

गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
एक ही रंग है दुनिया को जिधर से देखा

हमसे ऐ हुस्न अदा कब तेरा हक़ हो पाया
आँख भर तुझको बुज़ुर्गों के न डर से देखा

अपनी बांहों की तरह मुझको लगीं सब शाख़ें
चांद उलझा हुआ जिस रात शजर से देखा

हम किसी जंग में शामिल न हुए बस हमने
हम तमाशे को फ़क़त राह-गुज़र से देखा

हर चमकते हुए मंज़र से रहे हम नाराज़
सारे चेहरों को सदा दीदा-ए-तर से देखा

फूल से बच्चों के शानों पे थे भारी बस्ते
हमने स्कूल को दुश्मन की नज़र से देखा

'असअद' बदायुनी

अज़नबी अबके आश्ना सा था / अमित

मैं बहरहाल बुत बना सा था
वो भी मग़रूर और तना सा था

कुछ शरायत दरख़्त ने रख दीं
वरना साया बहुत घना सा था

साक़िये-कमनिगाह से अर्ज़ी
जैसे पत्थर को पूजना सा था

ख़ूब दमसाज़ थी ख़ुशबू लेकिन
साँस लेना वहाँ मना सा था

दर्द से यूँ तो नया नहीं था 'अमित'
अज़नबी अबके आश्ना सा था

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

मायूस कर रहा है / अकबर इलाहाबादी

मायूस कर रहा है नई रोशनी का रंग
इसका न कुछ अदब है न एतबार है

तक़दीस मास्टर की न लीडर का फ़ातेहा
यानी न नूरे-दिल है, न शमये मज़ार है

अकबर इलाहाबादी

लोहा / एकांत श्रीवास्तव

जंग लगा लोहा पांव में चुभता है
तो मैं टिटनेस का इंजेक्शन लगवाता हूँ
लोहे से बचने के लिए नहीं
उसके जंग के संक्रमण से बचने के लिए
मैं तो बचाकर रखना चाहता हूँ
उस लोहे को जो मेरे खून में है
जीने के लिए इस संसार में
रोज़ लोहा लेना पड़ता है
एक लोहा रोटी के लिए लेना पड़ता है
दूसरा इज़्ज़त के साथ
उसे खाने के लिए
एक लोहा पुरखों के बीज को
बचाने के लिए लेना पड़ता है
दूसरा उसे उगाने के लिए
मिट्टी में, हवा में, पानी में
पालक में और खून में जो लोहा है
यही सारा लोहा काम आता है एक दिन
फूल जैसी धरती को बचाने में

एकान्त श्रीवास्तव

शहर मुझको तेरे सारे मुहल्ले याद आते हैं / अमित

शहर मुझको तेरे सारे मुहल्ले याद आ्ते हैं
दुकाँ पर चाय की बैठे निठल्ले याद आते हैं

म्यूनिसपैलिटी के बेरोशन चराग़ों की कसम मुझको
उठाईगीर जेबकतरे चिबिल्ले याद आते हैं

तबेलों और पिगरी फार्म का अधिकार पार्कों पर
खुजाती तन मिसेज डॉग्गी औऽ पिल्ले याद आते हैं

मैं हाथी पार्क के हाथी पे रख कर हाथ कहता हूँ
नवोदित प्रेम के कितने ही छल्ले याद आते हैं

वो इन्वर्टर का अन्तिम साँस लेकर बन्द हो जाना
जब आई रात में बिजली तो हल्ले याद आते हैं

सड़क के उत्खनन को भूल से यदि भूल भी जाऊँ
तो टूटे दाँत और माथे के गुल्ले याद आते हैं

गुज़रता है कभी जब काफ़िला नव-कर्णधारों का
मुझे सर्कस के जोकर से पुछल्ले याद आते हैं

सिविल लाइन्स में है मॉल-ओ-मल्टीप्लेक्स की दुनियाँ
के दिन ढलते खिलीबाँछों के कल्ले याद आते हैं

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

आराइशे-खुर्शीदो-क़मर किसके लिए है / 'अना' क़ासमी


आराइशे-खुर्शीदो-क़मर[1]किसके लिए है
जब कोई नहीं है तो ये घर किसके लिए है

मुझ तक तो कभी चाय की नौबत नहीं आई
होगा भी बड़ा तेरा जिगर किसके लिए है

हैं अपने मरासिम[2]भी मगर ऐसे कहां हैं
इस सम्त इशारा है मगर किसके लिए है

है कौन जिसे ढूंढ़ती फिरतीं हैं निगाहें
आंखों में तेरी गर्दे-सफ़र किसके लिए है

अब रात बहुत हो भी चुकी बज़्म [3]शुरू हो
मैं हूं न यहां दर पे नज़र किसके लिऐ है

अशआर की शोख़ी तो चलो सबके लिए हाँ
लहजे में तेरे ज़ख़्मे-हुनर किसके लिए है

शक़ था तिरे तक़वे[4]पे ‘अना’ पहले से मुझको
वो ज़ोहराजबीं[5]कल से इधर किसके लिए है

'अना' क़ासमी

हास्य-रस -एक / अकबर इलाहाबादी


दिल लिया है हमसे जिसने दिल्लगी के वास्ते
क्या तआज्जुब है जो तफ़रीहन हमारी जान ले


शेख़ जी घर से न निकले और लिख कर दे दिया
आप बी०ए० पास हैं तो बन्दा बीवी पास है


तमाशा देखिये बिजली का मग़रिब और मशरिक़ में
कलों में है वहाँ दाख़िल, यहाँ मज़हब पे गिरती है.


तिफ़्ल में बू आए क्या माँ -बाप के अतवार की
दूध तो डिब्बे का है, तालीम है सरकार की


कर दिया कर्ज़न ने ज़न मर्दों की सूरत देखिये
आबरू चेहरों की सब, फ़ैशन बना कर पोंछ ली


मग़रबी ज़ौक़ है और वज़ह की पाबन्दी भी
ऊँट पे चढ़ के थियेटर को चले हैं हज़रत


जो जिसको मुनासिब था गर्दूं ने किया पैदा
यारों के लिए ओहदे, चिड़ियों के लिए फन्दे

अकबर इलाहाबादी

यानी-ला-यानी / अली मोहम्मद फ़र्शी

दाल-पानी
क़िस्सा-ख़्वानी
पाक बच्चे
क़ौम ख़ालिस दूध मक्खन
ज़िंदगी हाज़िर
ख़ुदा लज़्ज़त
करारी हड्डियाँ मीला मसाले-दार
पकती खिचड़ियाँ ऐवान-ए-बाला में
गुज़रते वक़्त को दाना दिखाती
मस्त-गश्ती पार्टियाँ
ओटर टमाटर चाट खा लें
ऊँट क़ुर्बानी के बकरे
रान चाँपें
सीख़ भी भुनती अँधेरी चीख़
यल्ला दौड़ गलियों में
जमूरी भागती शलवार के नेफ़े से बाहर
जूँ सँभाले मासियाँ
ख़िंज़ीर्नी अल्हड़ मिलावट
दूध पानी एक करते रात दिन
मुर्ग़-ए-मुसल्लम तोड़ते
अंगड़ाइयाँ मुस्लिम हरम के वास्ते
गुप रास्ते जाते नहीं हैं चीन को
चाचा हरामी जानता है

अली मोहम्मद फ़र्शी

हम को हमीं से चुरा लो / आनंद बख़्शी

 
हम को हमीं से चुरा लो
दिल में कहीं तुम छुपा लो
हम अकेले खो न जायें
दूर तुम से हो न जायें
पास आओ गले से लगा लो
हम को हमीं से चुरा लो ...

ये दिल धड़का दो ज़ुल्फ़ें बिखरा दो
शरमा के अपना आँचल लहरा दो
हम ज़ुल्फ़ें तो बिखरा दें दिन में रात न हो जाये
हम आँचल तो लहरा दें पर बरसात न हो जाये
होने दो बरसातें करनी हैं कुछ बातें
पास आओ गले से लगा लो ...

तुम पे मरते हैं हम मर जायेंगे
ये सब कहते हैं हम कर जायेंगे
चुटकी भर सिन्दूर से तुम ये माँग ज़रा भर दो
कल क्या हो किसने देखा सब कुछ आज अभी कर दो
हो न हो सब राज़ी दिल राज़ी रब राज़ी
पास आओ गले से लगा लो ...

आनंद बख़्शी

मैं ने कब चाहा कि मैं उस की तमन्ना हो जाऊँ / अब्दुल अहद ‘साज़’

मैं ने कब चाहा कि मैं उस की तमन्ना हो जाऊँ
ये भी क्या कम है अगर उस को गवारा हो जाऊँ

मुझ को ऊँचाई से गिरना भी है मंज़ूर, अगर
उस की पलकों से जो टूटे, वो सितारा हो जाऊँ

लेकर इक अज़्म[1] उठूँ रोज़ नई भीड़ के साथ
फिर वही भीड़ छटे और मैं तनहा हो जाऊँ

जब तलक महवे-नज़र[2] हूँ , मैं तमाशाई[3] हूँ
टुक निगाहें जो हटा लूं तो तमाशा हो जाऊँ

मैं वो बेकार सा पल हूँ, न कोइ शब्द, न सुर
वह अगर मुझ को रचाले तो ‘हमेशा’ हो जाऊँ

आगही[4] मेरा मरज़[5] भी है, मुदावा भी है ‘साज़’
जिस से मरता हूँ, उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ


शब्दार्थ:
  1. पक्का इरादा
  2. देखने में मगन
  3. दर्शक
  4. ज्ञान
  5. बीमारी
अब्दुल अहद ‘साज़’

मन कभी घर में रहा, घर से कभी बाहर रहा / गिरिराज शरण अग्रवाल

मन कभी घर में रहा, घर से कभी बाहर रहा
पर तुम्हारी फूल-जैसी ख़ुशबुओं से तर रहा

बर्फ़ की पौशाक उजली है, मगर पर्वत से पूछ
बर्फ़ जब पिघली तो क्या बाक़ी रहा? पत्थर रहा

तेरे आँचल में सही, मेरी हथेली में सही
आँधियाँ आती रहीं, लेकिन दिया जलकर रहा

सिर्फ़ शब्दों का दिलासा माँगने वाले थे लोग
सोचिए तो क़र्ज़ किस-किस शख़्स का हम पर रहा

हौसला मरता नहीं है संकटों के दरमियाँ
हर तरफ़ काँटे थे लेकिन फूल तो खिलकर रहा

गिरिराज शरण अग्रवाल

ज्ञानीजन / ऋतुराज

ज्ञान के आतंक में
मेरे घर का अन्धेरा
बाहर निकलने से डरता है

ज्ञानीजन हँसते हैं
बन्द खिड़कियाँ देखकर
उधड़े पलस्तर पर बने
अकारण भुतैले चेहरों पर
और सीलन से बजबजाती
सीढ़ियों की रपटन पर

ज्ञान के साथ
जिनके पास आई है अकूत सम्पदा
और जो कृपण हैं
मुझ जैसे दूसरों पर दृष्टिपात करने तक
वे अब दर्प से मारते हैं
लात मेरे जंग खाए गिराऊ दरवाज़े पर

तुम गधे के गधे ही रहे
जिस तरह कपड़े के जूतों
और नीले बन्द गले के रुई भरे कोटों में
माओ के अनुयायी...

सर्वज्ञ, अगुआ
ज्ञान-भण्डार के भट्टारक, महा-प्रज्ञ
कटाक्ष करते हैं :

ख़ुद तो ऐसे ही रहा दीन-हीन
लेकिन इसकी स्त्री ने कौनसा अपराध किया
कि मुरझाई नीम चढ़ी गिलोय को
दो बून्द पानी भी नसीब नहीं हुआ ।

ऋतुराज

अहेरी / उमाकांत मालवीय

नोकीले तीर हैं अहेरी के
कांटे खटिमट्ठी झरबेरी के
टांग चली शोख
तार तार हुआ पल्लू
अंगिया पर बैरी सा
भार हुआ पल्लू
मीठे रस बैन गंडेरी के
झरबेरी आंखों में
झलकी बिलबौटी
खनक उठी नस नस में
काटती चिकौटी
बाल बड़े जाल हैं मछेरी के
चोख चुभन
गोद गयी
पोर पोर गुदना
अंगुली पर नाच रहा
एक अदद फुंदना
चकफेरे छोड़ सातफेरी के

उमाकांत मालवीय

Thursday, October 30, 2014

निहाल-ए-वस्ल नहीं संग-बार / अहमद 'जावेद'

निहाल-ए-वस्ल नहीं संग-बार करने को
बस एक फूल है काफ़ी बहार करने को

कभी तो अपने फ़क़ीरों की दिल-कुशाई कर
कई ख़ज़ाने हैं तुझ पर निसार करने को

ये एक लम्हे की दूरी बहुत है मेरे लिए
तमाम उम्र तेरा इंतिज़ार करने को

कशिश करे है वो मह-ताब दिल को ज़ोरों की
चला ये क़तरा भी क़ुल्ज़ुम निसार करने को

तो फिर ये दिल ही न ले आऊँ ख़ूब चमका कर
तेरे जमाल का आईना-दार करने को

क़बा-ए-मर्ग हो या रख़्त-ए-ज़िंदगी ऐ दोस्त
मिले हैं दोनों मुझे तार तार करने को

बहुत सा काम दिया है मुझे उन आँखों ने
हवाला-ए-दिल-ए-ना-कर्दा-कार करने को

अहमद 'जावेद'

तुम्हारी गति और समय का अंतराल / अनुज लुगुन

ओ मेरी बेटी तुतरू !
मां से क्यों झगड़ती हो?
लो तुम्हारा खिलौना
तुम्हारा मिट्टी का घोड़ा
लो इस पर बैठो और जाओ
जंगल से जंगली सुअर का शिकार कर लाओ
ये लो धनुष अपने पिता का….,

ओ..ओ… तो तुम अब जा रही हो
घोड़े पर बैठ कर शिकार के लिए
तुम्हें पता है शिकार कैसे किया जाता है?
कैसे की जाती है छापामारी?
रुको…! अपने घोड़े को यहां रखो
बगल में रखो धनुष
और लो ये पेन्सिल और कागज़
पहले इससे लिखो अपना नाम
अपने साथी पेड़, पक्षी, फूल, गीत
और नदियों की आकृति बनाओ
फिर उस पर जंगल की पगडंडियों का नक्शा खींचो
अपने घर से घाट की दूरी का ठीक–ठीक अनुमान करो

और तब गांव के सीमांत पर खड़े पत्थरों के पास जाओ
उनसे बात करो, वे तुमसे कहेंगे तुम्हारे पुरखों की बातें
कि उन्हें अपने बारे में लिखने के लिए
कम पड़ गए थे कागज़
कि इतनी लम्बी थी उनकी कहानी
कि इतना पुराना था उनका इतिहास
कि इतना व्यापक और सहजीवी था उनका विज्ञान
तुम लिखो इन सबके बारे में
कि चांद, तारे, सूरज और आसमान की
गवाही नहीं समझ सके हत्यारे,
और तब हवा के बहाव और घड़ी का पता लगते ही
तुम दौड़ती हुई जाओ उस ओर
जहां जाड़े में जंगल का तापमान ज्यादा है
जहां तुम्हें तुमसे अलग गंध महसूस हो, शिकार वहीं है,

ओ मेरी बच्ची!
अब तुम्हारी गति और समय में अंतराल नहीं होगा
तुम्हारा निशाना अचूक होगा और दावेदारी अकाट्य.

अनुज लुगुन

सिन्दूर लगाना (डपटना) / अम्बर रंजना पाण्डेय

छोटे छोटे आगे को गिरे आते चपल
घूँघरों में डाली तेल की आधी शीशी ,
भर लिया उसके मध्य सिन्दूर और ललाट
पर फिर अँगुली घुमा-घुमा कर बनाया उसने
गोल तिलक । पोर लगा रह गया सिन्दूर
शीश पर थोड़ा पीछे; जहाँ से चोटी का
कसा गुंथन आरम्भ होता हैं, वहाँ पोंछ
दिया । उसे कहा था मैंने 'इससे तो बाल
जल्दी सफ़ेद हो जाते हैं ।' हँसी वह । मानी
न उसने मेरी बात । 'हो जाएँ बाल जल्दी
सफ़ेद । चिंता नहीं कल के होते आज हो
जाएँ । मैं तो भरूँगी ख़ूब सिन्दूर मांग
में । तुम सदा मुझ भोली से झूठ कहते हो ।
कैसे पति हो पत्नी को छलते रहते हो
हमेशा । बाल हो जाएँगे मेरे सफ़ेद
तो क्या? मेरा तो ब्याह हो गया हैं तुमसे ।
तुम कैसे छोड़ोगे मुझे मेरे बाल जब
सफ़ेद हो जाएँगे । तब देखूँगी बालम ।'

अम्बर रंजना पाण्डेय

अब खोलो स्कूल / ओम धीरज

अब खोलो स्कूल कि,
शिक्षा भी तो बिकती है

भवन-पार्क 'गण वेश’
आदि सब सुन्दर भव्य बनाओ,
बच्चो में सपने बसते हैं
उनको तुरत भुनाओ,
वस्तु वही बिकती है जो कि
अक्सर दिखती है

गुणवत्ता से भले मुरौव्वत
नहीं दिखावट से,
विज्ञापन की नाव तैरती
शब्द सजावट से,
गीली लकड़ी गर्म आँच में
भी तो सिंकती है

बेकारों की फौज बड़ी है
उनमें सेंध लगाओ,
भूख बड़ी है हर ’डिग्री’ से
इसका बोध कराओ,
शोषण की पटकथा सदा ही
पूँजी लिखती है।

ओम धीरज

गौरव गान / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

 
वैदिकता-विधि-पूत-वेदिका बन्दनीय-बलि।
वेद-विकच-अरविन्द मंत्र-मकरन्द मत-अलि।
आर्य-भाव कमनीय-रत्न के अनुपम-आकर।
विविध-अंध-विश्वास तिमिर के विदित-विभाकर।
नाना-विरोध-वारिद-पवन कदाचार-कानन-दहन।
हैं निरानन्द तरु-वृन्द के दयानन्द-आनन्द-घन।1।

वैदिक-धर्म न है प्रदीप जो दीप्ति गँवावे।
तर्क-वितर्क-विवाद-वायु बह जिसे बुझावे।
मलिन-विचार-कलंक-कलंकित है न कलाधर।
प्रभाहीन कर सके जिसे उपधार्म प्रभाकर।
वह है दिवि-दुर्लभ दिव्यमणि दुरित-तिमिर है खो रहा।
उसके द्वारा भू-वलय है विपुल-विभूषित हो रहा।2।

पंचभूत से अधिक भूतियुत है विभु-सत्ता।
प्रभु प्रभाव से है प्रभाव मय पत्ता पत्ता।
है त्रिलोक में कला अलौकिक-कला दिखाती।
सकल ज्ञान विज्ञान विभव है भव की थाती।
उन पर समान संसार के मानव का अधिकार है।
महि-धर्म-नियामक-वेद का यह महनीय-विचार है।3।

बिना मुहम्मद औ मसीह मूसा के माने।
मनुज न होगा मुक्त मनुजता महिमा जाने।
उनके पथ के पथिक यह विपथ चल हैं कहते।
रंग रंग से बाद तरंगों में है बहते।
पर यह वैदिक सिध्दान्त है उच्च-हिमाचल सा अचल।
मानव पा सकता मुक्ति है बने आत्मबल से सबल।4।

सत्य सत्य है, और सत्य सब काल रहेगा।
न्याय-सिंधु का न्यास-वारि कर न्याय बहेगा।
वहाँ जहाँ, हैं विमल विवेक विमलता पाते।
होगा मानव मान एक मानवता नाते।
है जगतपिता सबका पिता वेद बताते हैं यही।
प्रभु प्रभु-जन प्यारे हैं जिन्हें प्रभु के प्यारे हैं वही।5।

हो वैदिक ए वेदतत्तव हम को थे भूले।
मूल त्याग हम रहें फूल फल दल ले फूले।
धूम धाम से रहे पेट के करते धंधो।
युक्ति-भार से रहे उक्ति के छिलते कंधो।
थे बसे देश में पर न थे देश देश को जानते।
हम मनमानी बातें रहे मनमाना कर मानते।6।

कर कर बाल विवाह अबल बन थे बल खोते।
दुखी थे न विधावों को विधावापन से होते।
समझ लूट का माल लूटते थे ईसाई।
मुसलमान की मुसलमानियत थी रँग लाई।
हम दिन दिन थे तन-बिन रहे तन को गिनते थेनतन।
निपतन गति थी दूनी हुई पल पल होता था पतन।7।

भूल में पड़े, भूल को, समझ भूल न पाते।
देख देख कर दुखी-जाति-दुख देख न पाते।
कर्म भूमि पर था न कर्म का बहता सोता।
धर्म धर्म कह धर्म-मर्म था ज्ञात न होता।
उस काल अलौकिक लोक ने हमें अलौकिक बल दिया
आ दयानन्द-आलोक ने आलोकित भूतल किया।8।

पिला उन्होंने दिया आत्मगौरव का प्याला।
बना उन्होंने दिया मान ममता मतवाला।
जी में भर जातीय भाव कर सजग जगाया।
देश प्रेम के महामन्त्र से मुग्ध बनाया।
बतलाया ऐ ऋषि वंशधार है तुम में वह अतुल बल।
जो सकल सफलता दान कर करे विफल जीवन सफल।9।

वह नवयुग का जनक विविध सुविधान विधाता।
बात बात में यही बात कहता बतलाता।
जो है जीवन चाह सजीवन तो बन जाओ।
नाना रुज से ग्रसित जाति को निरुज बनाओ।
वे एक सूत्र में हैं बँधो जिन्हें बाँधते बेद हैं।
वे भेद भेद समझे नहीं जो मानते विभेद हैं।10।

प्रतिदिन हिन्दू जाति पतन गति है अधिकाती।
नित लुटते हैं लाल छिनी ललना है जाती।
है दृग के सामने आँख की पुतली कढ़ती।
होती है ला बला बला-पुतलों की बढ़ती।
मन्दिर हैं मिलते धूल में देवमूर्ति है टूटती।
अपनी छाती भारत-जननि कलप कलप है कूटती।11।

जाग जाग कर आज भी नहीं हिन्दू जागे।
भाग भाग कर भय भयावने भूत न भागे।
लाल लाल आँखें निकाल है काल डराता।
है नाना जंजाल जाल पर जाल बिछाता।
है निर्बलता टाले नहीं निर्बल तन मन की टली।
खुल खुल आँखें खुलती नहीं, नहीं बात खलती खली।12।

है अनेकता प्यार एकता नहीं लुभाती।
है अनहित से प्रीति बात हित की नहिं भाती।
रंग रहा है बिगड़ बदल हैं रंग न पाते।
है न रसा में ठौर रसातल को हैं जाते।
हैं अन्धकार में ही पड़े अंधापन जाता नहीं।
है लहू जाति का हो रहा लहू खौल पाता नहीं।13।

क्या महिमामय वेद-मंत्र में है न महत्ता।
राम नाम में रही नाम को ही क्या सत्ता।
क्या धाँस गयी धारातल में सुरधुनि की धारा।
आर्य जाति को क्या न आर्य गौरव है प्यारा।
क्या सकल अवैदिक नीतियाँ वैदिकता से हैं बली।
क्या नहीं भूतहित भूति है भारत भूतल की भली।14।

सोचो सँभलो मत भूलो घर देखो भालो।
सबल बनो बल करो सब बला सिर की टालो।
दिखला दो है जगत विजयिनी विजय हमारी।
रग रग में है रुधिार उरग-गति-गर्व प्रहारी।
वर कर वैदिक विरदावली वरद वेद पथ पर चलो।
सबको दो फलने फूलने और आप फूलो फलो।15।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जिस ग़म से दिल को राहत हो, उस ग़म का मदाबा क्या मानी? / अर्श मलसियानी

जिस ग़म से दिल को राहत हो, उस ग़म का मदाबा क्या मानी?
जब फ़ितरत तूफ़ानी ठहरी, साहिल की तमन्ना क्या मानी?

इशरत में रंज की आमेज़िश, राहत में अलम की आलाइश
जब दुनिया ऐसी दुनिया है, फिर दुनिया, दुनिया क्या मानी?

ख़ुद शेखो-बरहमन मुजरिम हैं इक जाम से दोनों पी न सके
साक़ी की बुख़्ल-पसन्दी पर साक़ी का शिकवा क्या मानी?

इख़लासो-वफ़ा के सज्दों की जिस दर पर दाद नहीं मिलती
ऐ ग़ैरते-दिल ऐ इज़्मे-ख़ुदी उस दर पर सज्दात क्या मानी?

ऐ साहबे-नक़्दो-नज़र माना इन्साँ का निज़ाम नहीं अच्छा
उसकी इसलाह के पर्दे में अल्लाह मे झगड़ा क्या मानी?

मयख़ानों में तू ऐ वाइज़ तलक़ीन के कुछ उसलूब बदल
अल्लाह का बन्दा बनने को जन्नत का सहारा क्या मानी?

अर्श मलसियानी

सन ४७ को याद करते हुए / केदारनाथ सिंह

तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह
गेहुँए नूर मियाँ
ठिगने नूर मियाँ
रामगढ़ बाजार से सुरमा बेच कर
सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँ
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह
तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा

तुम्हें याद है शुरू से अखिर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़ घटा कर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गए थे नूर मियाँ
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहाँ हैं
ढाका
या मुल्तान में
क्या तुम बता सकते हो
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में

तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है

केदारनाथ सिंह

डायरी / अरुण आदित्य

पंक्ति-दर-पंक्ति तुम मुझे लिखते हो
पर जिन्हें नहीं लिखते, उन पंक्तियों में
तुम्हें लिखती हूं मैं

रोज-रोज देखती हूं कि लिखते-लिखते
कहां ठिठक गई तुम्हारी कलम
कौन सा वाक्य लिखा और फिर काट दिया
किस शब्द पर फेरी इस तरह स्याही
कि बहुत चाह कर भी कोई पढ़ न सके उसे
और किस वाक्य को काटा इस तरह
कि काट दी गई इबारत ही पढ़ी जाए सबसे पहले

रोज तुम्हें लिखते और काटते देखते हुए
एक दिन चकित हो जाती हूं
कि लिखने और काटने की कला में
किस तरह माहिर होते जा रहे हो तुम

कि अब तुम कागज से पहले
मन में ही लिखते और काट लेते हो
मुझे देते हो सिर्फ संपादित पंक्तियां
सधी हुई और चुस्त

इन सधी हुई और चुस्त पंक्तियों में
तुम्हें ढूंढ़ते हैं लोग
पर तुम खुद कहां ढूंढ़ोगे खुद को
कि तुमसे बेहतर जान सकता है कौन
कि जो तस्वीर तुम कागज पर बनाते हो
खुद को उसके कितना करीब पाते हो?

अरुण आदित्य

काली काली घटा देखकर / कैलाश गौतम

काली -काली घटा देखकर
जी ललचाता है |
लौट चलो घर पंछी
जोड़ा ताल बुलाता है |

सोंधी -सोंधी
गंध खेत की
हवा बाँटती है
सीधी सादी राह
बीच से
नदी काटती है
गहराता है रंग और
मौसम लहराता है |

कैसे -कैसे
दृश्य नाचने लगे
दिशाओं में
मेरी प्यास
हमेशा चातक रही
घटाओं में
बींध रहा है गीत प्यार का
कैसा नाता है
सन्नाटे में
आंगन की बिरवाई
टीस रही
मीठी -मीठी छुवन
और
अमराई टीस रही
पागल को जैसे कोई
पागल समझाता है |

कैलाश गौतम

सब को दिल के दाग़ दिखाए एक तुझी को दिखा न सके / इब्ने इंशा

सब को दिल के दाग़ दिखाए एक तुझी को दिखा न सके
तेरा दामन दूर नहीं था हाथ हमीं फैला न सके

तू ऐ दोस्त कहाँ ले आया चेहरा ये ख़ुर्शीद मिसाल
सीने में आबाद करेंगे आँखों में तो समा न सके

ना तुझ से कुछ हम को निस्बत ना तुझ को कुछ हम से काम
हम को ये मालूम था लेकिन दिल को ये समझा न सके

अब तुझ से किस मुँह से कह दें सात समुंदर पार न जा
बीच की इक दीवार भी हम तो फाँद न पाए ढा न सके

मन पापी की उजड़ी खेती सूखी की सूखी ही रही
उमडे बादल गरजे बादल बूँदें दो बरसा न सके

इब्ने इंशा

अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है / 'असअद' बदायुनी

अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है
जमाव दोनों महाज़ों पे लश्करों का है

किसी ख़याल किसी ख़्वाब के सिवा क्या हैं
वो बस्तियाँ के जहाँ सिलसिला घरों का है

उफ़ुक़ पे जाने ये क्या शय तुलू होती है
समाँ अजीब पुर-असरार पैकरों का है

ये शहर छोड़ के जाना भी मारका होगा
अजीब रब्त इमारत से पत्थरों का है

वो एक फूल जो बहता है सतह-ए-दरिया पर
उसे ख़बर है के क्या दुख शनावरों का है

उतर गया है वो दरिया जो था चढ़ाव पर
बस अब जमाव किनारों पे पत्थरों का है

'असअद' बदायुनी

लज्ज़त-ए-दर्द-जिगर याद आई / 'क़मर' मुरादाबादी

लज्ज़त-ए-दर्द-जिगर याद आई
फिर तेरी पहली नज़र याद आई

दर्द ने जब कोई करवट बदली
जिंदगी बार-ए-दिगर याद आई

पड़ गई जब तेरे दामन पर नज़र
अज़मत-ए-दीद-ए-तर याद आई

अपना खोया हुआ दिल याद आया
उन की मख़्मूर नज़र याद आई

दैर ओ काबा से जो हो कर गुज़रे
दोस्त की राह-गुज़र याद आई

देख कर उस रूख-ए-जे़बा पे नकाब
अपनी गुस्ताख नज़र याद आई

जब भी तामीर-ए-नशेमन की ‘कमर’
यूरिश-ए-बर्क-ओ शरर याद आई

'क़मर' मुरादाबादी

मौसियाँ / अनामिका

वे बारिश में धूप की तरह आती हैं–
थोड़े समय के लिए और अचानक
हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू
और सधोर की साड़ी लेकर
वे आती हैं झूला झुलाने
पहली मितली की ख़बर पाकर
और गर्भ सहलाकर
लेती हैं अन्तरिम रपट
गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की।

झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से
मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
कर देती हैं चोटी-पाटी
और डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू
किस धुन में रहती है
कि बालों की गाँठें भी तुझसे
ठीक से निकलती नहीं।

बालों के बहाने
वे गाँठें सुलझाती हैं जीवन की
करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से
और फिर हँसती-हँसाती
दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं–
चटनी-अचार-मूंगबड़ियाँ और बेस्वाद संबंध
चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे–
सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर
ध्यान भी नहीं जाता औरों का।

आँखों के नीचे धीरे-धीरे
जिसके पसर जाते हैं साये
और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप–
ख़ून के आँसू-से
चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
काले-कत्थई चकत्तों का
मौसियों के वैद्यक में
एक ही इलाज है–
हँसी और कालीपूजा
और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी।

बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी
लेती गई खेत से कोड़कर अपने
जीवन की कुछ ज़रूरी चीजें–
जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपंथी,
अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की।

अनामिका

एक कली / अमोघ

थी खड़ी कली, अधखिली कली,
रसभरी कली ।
जब विहँस पड़ी, तब निखर उठी,
आया कोई मधु का लोभी ।
गुन-गुन करता
मधु पी-पीकर
पागल बनता ।
फिर भी प्यासा, फिर भी आशा,
वह हाथ बढ़ा, आगे उमड़ा ।
कुछ कह-सुनकर
फिर मिला ओठ
रस पी-पीकर
गुनगुना उठा वह पंख उठा ।
पंखों के हिलडुल जाने से
कुछ इधर झड़े
कुछ उधर पड़े
वे परिमल कण
या आभूषण !
हिल उठी कली, वह फिर सम्हली
वह अब भी कुछ-कुछ थहराती
उड़ गया मधुप अति दूर-दूर
पर मौन खड़ी वह रह जाती
कितना निष्ठुर,
कितना निर्मम !
कितनी मस्ती !!
कितनी जल्दी !!!

रचनाकाल : पहली प्रकाशित रचना, विश्वमित्र साप्ताहिक, फरवरी 1945

अमोघ नारायण झा 'अमोघ'

Wednesday, October 29, 2014

पत्नी और घर / कौशल किशोर

यह औरत
जो पड़ोसिन से बचत का गुर
सीखने गई है
यह औरत
जो चूल्हे में हरकत बो रही है
मेरी पत्नी है

यह चलती है
तो घर चलता है
चूल्हा जलता है
इसके चेहरे पर है
मध्यवर्गीय चिन्ताओं की नदी
जिसमें हाथ-पैर पटकती है
डुबकी लगाती है
इसके अन्दर विलुप्त हो रहे अपने घर के लिए
कोशिश में है कि
इस घर को नदी से बाहर लाकर रख दे
और कहे
यह है मेरा घर
इस देश में मेरा भी है एक घर

गुर सिखाने वाली पड़ोसिनें कहती हैं
भले ही बच्चों को दूध न मिले
पर रहें अच्छे कपड़ों में
दिखे टिप-टॉप
कौन देखता है
आपके अन्दर के इतिहास के पन्नों पर फैले रेगिस्तान को
हाँ, आवरण पर कुछ हलचलें
कुछ रंगीनियाँ हों ज़रूर
कि लोग कह उठे
कितने सुखी हैं दम्पत्ति
कितने हँसदिल हैं बच्चे
कितना भरा-पूरा है घर
और आप लोगों के बीच उठ जाएँ
धरती से कुछ इंच ऊपर
लोग आपका उदाहरण दें
और आप कहें
अपने खून-पसीने से बनाया है यह घर
जैसे टाटा-बिड़ला ने मेहनत से
उगाही है अपनी सम्पत्ति

अपने सपने में बसे घर के लिए
यह औरत उठती है हर सुबह
कपड़ों को ठीक करते
कमरे को ठीक करते
घर को ठीक करते
बैठकखाना सुसज्जित हो पूरी तरह
कहीं सलवटें न हों चादर पर
हर चीज़ हो यथास्थान
गड़बड़ी के लिए बच्चों को फटकारती है
साहब को डाँटती है
सारा दिन चलती रहती है इधर से उधर
अन्दर से बाहर
बाहर से अन्दर
अपने सपने में बसे घर के लिए

पर घर है
जैसे भारत देश की पंचवर्षीय योजनाएँ
यह औरत घर के लिए जितना ज़्यादा परेशान होती है
उतना ज़्यादा डूबती है नदी में
विचारों में घर का ख़ूबसूरत नक़्शा बनाती है
और यथार्थ में
पीछे की दीवार ढह जाती है
सोफ़े का खोल बदलने की बात सोचती है
और बैठकखाने की चादर फट जाती है
साहब दिखें जिन्स में स्मार्ट
कि बच्चे हो जाते हैं नंगे
या फट जाती है उसकी अपनी ही साड़ी

क्यों होता है ऐसा ?
कैसे हो यह सब ??
वह परेशान होती है
यह औरत जितना ज़्यादा परेशान होती है
उतना ज़्यादा दूर होता जाता है
उसका घर ।

कौशल किशोर

अव्यक्त / कुमार अंबुज

कुछ चीजें दफन ही रहती आएँगी
इतनी ही है भाषा की शक्ति
ओ मेरी प्रबल आकांक्षा !
अंत में बचा ही रहेगा
अगले मनुष्य के लिए थोड़ा-सा रहस्य
कपास के फूल को देखने के अनुभव
और कह पाने के बीच का अंतराल
चला जाएगा एक मनुष्य के साथ ही अव्यक्त
और यह कोई कृपणता नहीं होगी
यह व्यक्तिगत प्रकाश जिसे कोई न देख सकेगा
नसों और नाडि़यों के बीच बसा ईथर
इसे यदि ईश्वर कह दूँगा
तो गलत दिशा की तरफ चली जाएगी दुनिया
व्यक्त भले कुछ न हो
इशारा ठीक तरफ होना चाहिए सोचता हूँ
फिर अव्यक्त रह जाता है भीतर का उल्लास
नम चीजों पर गिरती हुई यह कार्तिक की धूप है
गिलहरी को देख कर बच्चे की यह हँसी
जो सर्प को देखते हुए भी हो सकती थी इतनी ही प्रफुल्ल
खाने की मेज पर बुलाया जा रहा है तुम्हें
तुम जो जाना चाहते हो मृत्यु के पास
इस व्याख्येय अतार्किकता के बीच भी
चला आता है कुछ अव्यक्त
गुब्बारों के रंगों को
उनके भीतर बसी हवा ही देती है सच्ची शकल
और उड़ाए चली जाती है जाने किधर
तुम कभी नहीं जान पाते हो
उस निगाह के भीतर क्या रह गया था शेष
जो आज भी चमकता है अँधेरों में रेडियम की तरह
हृदय दोपहरी में देखता है चकित
सुबह विलीन हो चुकी होती है अंतरिक्ष में
यह शाम का गुम्बद है
कई तरह की आवाजें आती हैं
आलस्य, दुःख और विफलता में डूबी
सुख का यह भी एक चेहरा है
जो बच जाता है उजागर होने से
गुहा के भीतर गुहा है
और उसके भीतर
जीवन की एक कोशा
ऐसा ही कुछ
कहना चाहता है कोई हजारों सालों से
जो हर बार चला आता है अनकहा
जिसके आसपास लगे हुए शब्दों के शर
जो बिंधा हुआ अपने सौंदर्य में अव्यक्त।

कुमार अंबुज

वादा उस माह-रू के आने का / 'अख्तर' शीरानी

वादा उस माह-रू के आने का
ये नसीबा सियाह-ख़ाने का

कह रही है निगाह-ए-दुज़-दीदा
रुख़ बदलने को है ज़माने का

ज़र्रे ज़र्रे में बे-हिजाब हैं वो
जिन को दावा है मुँह छुपाने का

हासिल-ए-उम्र है शबाब मगर
इक यही वक़्त है गँवाने का

चाँदनी ख़ामोशी और आख़िर शब
आ के है वक़्त दिल लगाने का

है क़यामत तेरे शबाब का रंग
रंग बदलेगा फिर ज़माने का

तेरी आँखों की हो न हो तक़सीर
नाम रुसवा शराब-ख़ाने का

रह गए बन के हम सरापा ग़म
ये नतीजा है दिल लगाने का

जिस का हर लफ़्ज़ है सरापा ग़म
मैं हूँ उनवान उस फ़साने का

उस की बदली हुई नज़र तौबा
यूँ बदलता है रुख़ ज़माने का

देखते हैं हमें वो छुप छुप कर
पर्दा रह जाए मुँह छुपाने का

कर दिया ख़ूगर-ए-सितम 'अख़्तर'
हम पे एहसान है ज़माने का.

'अख्तर' शीरानी

एक अशीर्षक समय में / कुमार अनुपम

अँखुवे झड़ रहे हैं जबकि पतझर का मौसम दूर है सड़को पर सर पटक रही है रंगों में उफनाती राप्ती बाढ़ के नियमित आषाढ़ को धकियाती साँय साँय की चीख सायरनों में प्रखर कई गुना जबकि बिजलियों आँधियों की ऋतु दूर है बहुत जो उपस्थित है साक्षात में अनुपस्थित भी दिख जाता है सरापा नग्न इस अशीर्षक समय में आत्मा की खुरचन है साँस साँस जिन पर धमाकों की कतार मार्च कर रही है अनागत नींद तलक अतृप्ति का पहरा है आश्वस्ति की घोषणा प्रसारित हो रही है – ‘स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में’ – खुला है ‘बलरामपुर मॉडर्न स्कूल, बलरामपुर’ की गणित की कक्षा में श्री टी.एन.मिश्र की बेंत सुनने वाली है उन्नीस का पहाड़ा और कुछ ढीठ छात्र बीस के पहाड़े की सरलता से बढ़ गये हैं कापी के पिछले पन्नों के लोकतांत्रिक मैदान में कट्टम बट्टम खेलने की चुपचाप ज़िद में मशगूल हैं आतंक से निस्पृह जैसे एक स्कूल ही बना देता है इतना कुंद इतना बेशर्म इतना पत्थर इतना बाइज़्ज़त कि फिर ज़ोर आजमाइश किसी भी दर्द की उनके लिए कट्टम बट्टम को सीधी चपल रेखा से मिलाने जीत जाने की मोहताज भर है कि समाप्ति इस खेल की घंटा ख़त्म होने के बाद भी नहीं है सुनिश्चित इन्हीं शोहदों के जीवट के प्रति उस्ताद ग़ालिब ने समर्पित किया होगा ग़ज़ल का एक पूरा मिसरा, ‘दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना’, लाजिम है जनाब सोचना ही यह कि कर्फ़्यू में समय है समय में शहर है शहर में खुला है स्कूल स्कूल में गणित की कक्षा कक्षा में गणित अध्यापक श्री टी.एन. मिश्र हैं और बच्चे भी कितना असंगत है यह सब मगर इंद्रियों के बिना भी जो देखा जा रहा सुना जा रहा भोगा जा रहा सहा जा रहा अथाह जघन्य और असह्य (निढ़ाल नाख़ूनों से खुरचते हुए हृदय सपने प्रतिभा जन्म और मनुष्यता का पश्चाताप…) उस बहुत कुछ से भरे जा सकते हैं इतिहास के पोथन्ने अनगिन से तो कमतर ही है इस ढीठ कवि का यह अक्षम्य अपराध अन्यथा महापंडितों नृतत्त्वशास्त्रियों वैज्ञानिकों राजनीतिज्ञों दंड दें कि आप मूर्तमति के समक्ष मैं अमूर्तमति नहीं कर सका समय का संकीर्तन पाठ कि इसे पिछले पन्ने पर लिखीं कुछ सतरें ही मानें महज कि आप पारित कर सकते हैं अध्यादेश ऐसे कि अब बची है अधिक संवेदना सिर्फ़ संवेदी सूचकांक में ही

कुमार अनुपम

फिर भी / अरुण कमल

मैंने देखा साथियों को
हत्यारों की जै मनाते

मेरा घर नीलाम हुआ
और डाक बोलने आये अपने ही दोस्त

पहले जितना खुश तो नहीं हूँ मैं
न हथेलियों में गर्म जोशी
न ही आदमी में पहले सा भरोसा
उतनी उम्मीद भी नहीं है अब
हरापन भी पक कर स्याह पड़ गया है

फिर भी मैं जानता हूँ कि अभी-अभी
मारकोस मनीला से भागा
जहाँ तोप के मुँह में मुँह लगाए खड़ा
पन्द्रह साल का एक लड़का

व्हिसिल बजाता

जानता तो हूँ कि बेबी डॉक
जल्दी-जल्दी जाँघिया पहनता
हवाई पट्टी पर दौड़ा

हाइती से बाहर

और जिन औरतों ने चौखट के पार कभी

पाँव नहीं डाला

उन्होंने घेर ली देश की संसद अचानक
इसलिए उम्मीद है कि मेरा घर

मुझे मिलेगा वापस

उम्मीद है कि जनरल डायर ज़िन्दा नहीं बचेगा
अभी भी जलियाँवाला बाग में
अपने पति की लाश अगोरती बैठी है वो औरत
कि लोग सुबह तक आएँगे ज़रूर

नये दोस्त बनेंगे
नयी भित्ती उठेगी
जो आज अलग है
कल एक होंगे

पत्थर की नाभि में अभी भी कहीं

ज़िन्दा है हरा रंग-

मुझे उम्मीद है फिर भी......

अरुण कमल

क़ामत-ए-यार को हम याद किया करते हैं / इमाम बख़्श 'नासिख'

क़ामत-ए-यार को हम याद किया करते हैं
सरो को सदक़े में आज़ाद किया करते हैं

कूच-ए-याद को हम याद किया करते हैं
जाके गुल ज़ार में फ़रियाद किया करते हैं

कूच-ए-याद को हम याद किया करते हैं
जाके गुल ज़ार में फ़रियाद किया करते हैं

रश्क से नाम नहीं लेते के सुन ले न कोई
दिल ही दिल में उस हम याद किया करते हैं

गुज़र हैं कूच-ए-काकुल से सबा के झोंके
निकहत-ए-गल को जो बर्बाद किया करते हैं

फूँक दें नाल-ए-सोज़ंा से अगर चाहें क़फ़्स
हम फ़क़त खातिर-ए-सैयाद किया करते है

तो वो सैयाद है जो वार के तुझ पर लाखों
ताइर-ए-रूह को आज़ाद किया करते हैं

इंतक़ाम इस का कहीं ले न फ़लक डरता हूं
झूठे वादों से़ जो वो शाद किया करते हैं

तेरा दीवान है क्या सामने उन के ‘नासिख’
जो के कुरान पे एराद किया करते हैं

इमाम बख़्श 'नासिख'

पढ़बा-लिखबा न त डोम-चमार बनबा !! / अनुज कुमार

मैं डोम-चमार नहीं,
मैं मदेसिया हलवाई हूँ, कानू हूँ,
गनीनाथ मेरे देवता हैं,
गोविन्द भी ।

मैं डोम-चमार होता,
तो छट से दो रोज़ पहले
बूढ़ी गण्डक की नाक-भौं सजा रहा होता,
ताकि कोई झा अपने मन्त्रों के एक्सक्ल्यूसिव दिमागी पोटली के साथ,
अपनी जनाना को जग-जहान से बचाते हुए,
बच्चों को मवेशी की तरह किनारे ला सके,
ताकि रे-बैन चढ़ाए मूँछों पर ताव देते, कोई सिंह,
अपनी लिपी-पुती बीवियों के साथ आराध्या को अरग चढ़ा सके,
ताकि कोई साह टोकरे में कम हो रहे प्रसादी के लिए फल-तेल-चीनी की दुहाई दे सके,
ताकि कायस्थों के मसखरे, मुसहर, दुसाध, कलवार या पासी की कन्याओं की जवानी नाप सकें,
ताकि हर कोई ख़ुद को बेहतर भक्त जता सके,
अच्छे होने-दिखने की आजमाइश कर सके ।

मैं डोम-चमार होता,
तो छटी मईया मेरी बपौती होती,
मैं ही नाव में बच्चों को खेता,
गुब्बारे बेचता, आइसक्रीम दिखा सब को मोहता,
मैं ही छट-पर्व का इवेण्ट-मैनेजर होता ।

पर मैं डोम-चमार नहीं,
मैं कानू हूँ, गुप्ता हूँ,
और हम जैसे, हमसे ऊपरवाले जैसे थोड़ा बहुत पढ़-पाढ़ लेते हैं,
सेकरेटेरियट, वकीली, डाक्टरी, प्रोफ़ेसरी या सरकारी मुलाजिम हो लेते हैं
हाँ, मूँह छूटते ही कहते हैं --
“अऊर का ! पढ़बा-लिखबा न त डोम-चमार बनबा !!

अनुज कुमार

हुसैन / ”काज़िम” जरवली

खुद अपने खून का साया भी दोपहर भी हुसैन,
शहादतों का मुसाफिर भी और शजर भी हुसैन।

क़यामे सब्र भी, और सब्र का सफर भी हुसैन,
खुद अपने सब्र की मंज़िल भी, रहगुज़र भी हुसैन।

समांअतों में रसूलों की गूंजता ऐलान,
खबीर-ए-कलमा-ए-तौहीद भी, खबर भी हुसैन.

हुसैन बादे मोहम्मद भी कायमो बाक़ी,
वुजूदे हज़रते आदम से पेश्तर भी हुसैन।

वही चराग़, चरागों की रोशनी भी वही,
हयाते नौवे बशर भी, हयातगर भी हुसैन।

मुहाल भी है उसी शख्स के लिये मुमकिन,
बशीरे ग़ैब भी, और पैकरे बशर भी हुसैन।

बड़ा हसीन सलीक़ा है जान देने का,
कमाले इश्क़ भी, और इश्क़ का हुनर भी हुसैन।

सदा - ए - हर्फ़ वही है, वही जवाबे सदा,
पयम्बरों की दुआएं भी, और असर भी हुसैन।

बकाये रूह उसी के हिसारे नफ्स में है,
शहादतों का मदीना भी, और दर भी हुसैन।। -- काज़िम जरवली

(यह रचना पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की शान मे है जिनका क़त्ल बड़ी निर्दयता से किया गया, वह मानवता के प्रेरणास्रोत हैं - गांधी जी का कथन है की मैंने अहिंसा का सबक इमाम हुसैन से सीखा)

काज़िम जरवली

रह-रवी है न रह-नुमाई है / मुल्ला

रह-रवी है न रह-नुमाई है
आज दौर-ए-शकिस्ता-पाई है

अक़्ल ले आई ज़िंदगी को कहाँ
इश्क़-ए-नादाँ तेरी दुहाई है

है उफ़ुक़ दर उफ़ुक़ रह-ए-हस्ती
हर रसाई में नारसाई है

शिकवे करता है क्या दिल-ए-नाकाम
आशिक़ी किस को रास आई है

हो गई गुम कहाँ सहर अपनी
रात जा कर भी रात आई है

जिस में एहसास हो असीरी का
वो रिहाई कोई रिहाई है

कारवाँ है ख़ुद अपनी गर्द में गुम
पाँव की ख़ाक सर पे आई है

बन गई है वो इल्तिजा आँसू
जो नज़र में समा न पाई है

बर्क़ ना-हक़ चमन में है बद-नाम
आग फूलों ने ख़ुद लगाई है

वो भी चुप हैं ख़मोश हूँ मैं भी
एक नाज़ुक सी बात आई है

और करते ही क्या मोहब्बत में
जो पड़ी दिल पे वो उठाई है

नए साफ़ी में हो न आलाइश
यही 'मुल्ला' की पारसाई है

आनंद नारायण मुल्ला

मेरा हृदय / अरुणा राय

उसकी निगाहें
उसके चेहरे पर खिची
स्मित-मुस्कान
उसकी चंचलता
मुझे
स्थिर कर रही थी

मेरी आँखें
झुकी जा रही थीं
और मेरा हृदय
खोल रहा था
ख़ुद को...

मेरी चुप्पी
बज रही थी
उसके भीतर
जिसके शोर में
ढूंढ रहा था वह
धड़कनों को अपनी।

अरुणा राय

तस्वीर में माँ और उनकी सहेलियाँ / अरविन्द श्रीवास्तव

अक्सर कुछ चीज़ें
हमारी पकड़ से दूर रहती हैं

अगली गर्मी फ्रिज खरीदने की इच्छा
और बर्फ़बारी में गुलमर्ग जाने की योजना

कई बार हमसे दूर रहता है वर्तमान

कई-कई खाता-बही रखती हैं स्मृतियाँ

एक ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीर दिखी है
अभी-अभी पुराने एलबम में
जिसमें अपनी कुछ सहेलियों के साथ
शामिल है माँ
उन्होंने खिंचवाई थीं ये तस्वीरें
सम्भवतः आपस में बिछुड़ने से पहले

तस्वीर में एक लड़की ने
अपने गाल पर अंगुली लगा रखा है
दूसरे ने एक लट गिरा रखा है चेहरे पर
एक ने जैसे फोटोग्राफर से आग्रह कर
एक तिल बनवा रखा है ललाट पर
चौथी खड़ी है स्टैच्यु की मुद्रा में
और पांचवी ने, जैसा कई बार होता है
अपनी आँखें झपका ली है
आँख झपकाने की बात
उस सहेली को हफ़्तों सालती रही थी
जैसा कि माँ ने मुझे बताया था

कमोबेश एक सी दिखनेवाली ये लड़कियाँ
माँ-दादी और नानी बनकर
बिखर चुकी हैं दुनिया में

उन्होंने अपने नाती-पोतों के लिए
जीवित रखी है वह कथित कहानी
- कि जब कुआं खुदा रहे थे हमारे पूर्वज
अंदर से आवाज आयी थी तब
- ये दही लोगे....

एक और दुनिया बसती है हमारे आसपास
राक्षस और परी की

उन्होंने बचाये रखा है स्मृतियों में
मुग़ल-ए-आज़म और बैजू बावरा के साथ
शमशाद व सुरैया के गीतों को
नितांत अकेले क्षण के लिए
जैसे मिट्टी में दबी होती है असंख्य जलधारा

उनकी निजी चीज़ों में
सहेलियों की दी गयी चंद स्वेटर के पैटर्न
रुमाल और उस पर कढाई के नमूने,
हाथ के पंखे, प्लास्टिक तार के गुलदस्ते
और बेला, चंपा जैसे कई उपनामों सहित
उनकी ढेर सारी यादें थीं

माँ और उनकी सहेलियाँ बिछुड़ी थीं
अच्छे और बुरे वक्त में मिलते रहने की
उम्मीद के साथ

लेकिन ऐसा नहीं हो सका था
तस्वीर के बाहर!

अरविन्द श्रीवास्तव

सरस्वती स्तुति / कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'

वाहन मराल कर पुस्तक ओ वीन माल सुन्दर वसन स्वच्छ सोभे जनु चानी के।
सिंह पेसवार लीन्हे शूल करवाल धारे हियख्याल प्रेम शिव वर दानी के।।
भक्तन को देत बुद्धि विद्या धन सम्पति इ नाम अवलम्ब एक मूढ़ अभिमानी के।
पूजन सरोज पद करत प्रणाम सदा सेवक कहावे मातु शारदा भवानी के।।

कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'

पहाड़ बिफर गया / ओम पुरोहित ‘कागद’


ऊपर उठे-तने
पहाड़ोँ के शिखर
छू कर क्या बोली हवा
पूछने झुका दरख्त
... चरमरा कर टूट गया
अंग अंग बर्फ रमा
बैठा मौन साधक
साक्षात शिव सरीखा
कई कई नदियोँ से
अभिषेक पा कर भी
पहाड़ नहीँ बोला
बोला तो तब भी नहीँ
जब तूफानोँ ने झकझोरा !
पहाड़ उस दिन
बोला और सरक गया
जब उसके भीतर
कुछ दरक गया
अंतस की अकुलाहट
लावा दर्द घुटन का
बिखर गया
दूर जंगल मेँ
मौन पहाड़ बिफर गया ।

ओम पुरोहित ‘कागद’

भ्रष्ट समय में कविता / उल्लास मुखर्जी

जब ईमानदार को
समझा जाता हो बेवकूफ़
समयनिष्ठ को डरपोक,
कर्तव्यनिष्ठ को गदहा,

तब कविता लिखना-पढ़ना-सुनना
और सुनाना भी
है बहुत मुश्किल काम,

बहुत मुश्किल काम है
कविता करना,
फिर भी कविता हो जाती है
ख़ुद-ब-ख़ुद
जीवन-संघर्षों को झेलते हुए ।

उल्लास मुखर्जी

गोरे रँग पे न इतना गुमान कर / आनंद बख़्शी

 
गोरे रंग पे ना इतना ग़ुमान कर
गोरे रंग पे ना इतना ग़ुमान कर
गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा

मैं शमा हूँ तू है परवाना
मैं शमा हूँ तू है परवाना
मुझसे पहले तू जल जाएगा

गोरे रंग पे ...

रूप मिट जाता है ये प्यार ऐ दिलदार नहीं मिटता

हो हो फूल मुरझाने से गुलज़ार ओ सरकार नहीं मिटता

क्या बात कही है होय तौबा
क्या बात कही है होय तौबा

ये दिल बेईमान मचल जाएगा
गोरे रंग पे ...

ओ ओ आपको है ऐसा इन्कार तो ये प्यार यहीं छोड़ो

ओ ओ प्यार का मौसम है बेकार की तकरार यहीं छोड़ो

हाथों में हाथ ज़रा दे-दो
हाथों में हाथ ज़रा दे-दो

बातों में वक़्त निकल जाएगा
गोरे रंग पे ...

ओ ओ मैं तुझे कर डालूँ मसरूर नशे में चूर तो मानोगे

ओ ओ तुमसे मैं हो जाऊँ कुछ दूर ए मग़रूर हो मानोगे

तू लाख बचा मुझसे दामन
तू लाख बचा मुझसे दामन
ये हुस्न का जादू चल जाएगा

गोरे रंग पे ...

आनंद बख़्शी

न ये तूफ़ान ही अपने कभी तेवर बदलते हैं / अशोक रावत

न ये तूफ़ान ही अपने कभी तेवर बदलते हैं
न इनके ख़ौफ़ से अपना कभी हम घर बदलते हैं.


न मन में ख़ौफ़ शीशों के न पश्चाताप में पत्थर,
न शीशे ही बदलते हैं, न ये पत्थर बदलते हैं.


समझ में ये नहीं आता, मंज़र बदलते हैं.


अजी इन टोटकों से क्या किसी को नीद आती है,
कभी तकिया बदलते हैं, कभी चादर बदलते हैं.


अशोक रावत

घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है / अदम गोंडवी

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।

भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।

बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।

सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।

अदम गोंडवी

आज से पहले तेरे मस्तों की ये / सरूर

आज से पहले तेरे मस्तों की ये ख़्वारी न थी
मय बड़ी इफ़रात से थी फिर भी सर-शारी न थी

एक हम क़द्रों की पामाली से रहते थे मलूल
शुक्र है यारों को ऐसी कोई बीमारी न थी

ज़हन की परवाज़ हो या शौक़ की रामिश-गरी
कोई आज़ादी न थी जिस में गिरफ़्तारी न थी

जोश था हंगामा था महफ़िल में तेरी क्या न था
इक फ़क़त आदाब-ए-महफ़िल की निगह-दारी न थी

उन की महफ़िल में नज़र आए सभी शोला ब-कफ़
अपने दामन में मगर कोई भी चिंगारी न थी

कल इसी बस्ती में कुछ अहल-ए-वफ़ा होते तो थे
इस क़दर अहल-ए-हवस की गरम-बाज़ारी न थी

हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं
और तो सब कुछ था लेकिन रस्म-ए-दिल-दारी न थी

आले अहमद 'सरूर'

तेरे हलके से तबस्सुम का इशारा भी / ज़ैदी

तेरे हलके से तबस्सुम का इशारा भी तो हो
ता सर-ए-दार पहुँचने का सहारा भी तो हो

शिकवा ओ तंज़ से भी काम निकल जाते हैं
ग़ैरत-ए-इश्क़ को लेकिन ये गवारा भी तो हो

मय-कशों में न सही तिश्ना-लबों में ही सही
कोई गोशा तेरी महफ़िल में हमारा भी तो हो

किस तरफ़ मोड़ दें टूटी हुई किश्ती अपनी
ऐसे तूफ़ाँ में कहीं कोई किनारा भी तो हो

है ग़म-ए-इश्क़ में इक लज़्ज़त-ए-जावेद मगर
इस ग़म-ए-दहर से ऐ दिल कोई चारा भी तो हो

मय-कदे भर पे तेरा हक़ है मगर पीर-ए-मुग़ाँ
इक किसी चीज़ पे रिन्दों का इजारा भी तो हो

अश्क-ए-ख़ूनीं से जो सींचे थे बयाबाँ हम ने
उन में अब लाला ओ नसरीं का नज़ारा भी तो हो

जाम उबल पड़ते हैं मय लुटती है ख़ुम टूटते हैं
निगह-ए-नाज़ का दर-पर्दा इशारा भी तो हो

पी तो लूँ आँखों में उमड़े हुए आँसू लेकिन
दिल पे क़ाबू भी तो हो ज़ब्त का यारा भी तो हो

आप इस वादी-ए-वीराँ में कहाँ आ पहुँचे
मैं गुनहगार मगर मैं ने पुकारा भी तो हो

अली जव्वाद 'ज़ैदी'

Tuesday, October 28, 2014

कभी मोम बनके पिघल गया कभी गिरते गिरते सम्भल गया / फ़राज़

कभी मोम बन के पिघल गया कभी गिरते गिरते सँभल गया
वो बन के लम्हा गुरेज़ का मेरे पास से निकल गया

उसे रोकता भी तो किस तरह के वो शख़्स इतना अजीब था
कभी तड़प उठा मेरी आह से कभी अश्क़ से न पिघल सका

सरे-राह मिला वो अगर कभी तो नज़र चुरा के गुज़र गया
वो उतर गया मेरी आँख से मेरे दिल से क्यूँ न उतर सका

वो चला गया जहाँ छोड़ के मैं वहाँ से फिर न पलट सका
वो सँभल गया था 'फ़राज़' मगर मैं बिखर के न सिमट सका

अहमद फ़राज़

जनतंत्र का अभिमन्यु / उमेश चौहान

आज इस नए दौर की महाभारत में
जनतंत्र का अभिमन्यु बचेगा क्या?

बुरी तरह घिरा है वह
साम्प्रदायिकता के चक्रव्यूह में
धर्म और जातियों की ताक़त समेटे
बड़े-बड़े महारथी
तत्पर हैं अभिमन्यु का वध करने को,
कृष्ण तो युद्ध शुरू होते ही राष्ट्रपिता का दर्ज़ा देकर
समाधिष्ठ कर दिए गए राजघाट पर
भरोसा जिस अर्जुन पर था पूरे देश को
वे भी अब सोए हुए हैं शांतिघाट पर
जयद्रथ को यह भी भय नहीं कि
कोई प्रतिकार भी लेगा उससे इस वध का,
वीर अभिमन्यु निस्सहाय
मरने को सन्नद्ध है
इस कठिन महाभारत के चक्रव्यूह में।

जन्म से पहले
दिया था जो ज्ञान पिता ने
सुना-सुना कर माता को नित्य-प्रति
वह अधूरा ही रह गया शायद किसी कारणवश,
विजन के रोदन सा ही गूँजा वह चारों ओर,
सहस्राब्दियों की अनैतिकता को मिटाने की जिज्ञासा में
रचे गए नए-नए मूल्य, नया संविधान,
किन्तु इसी पर चलते हुए ही आज
लड़खड़ाने लगी हैं देश में जनतंत्र की मान्यताएं,
इसी लड़खड़ाहट ने जन्मी है
यह आज की यह महाभारत,
जिसमें उद्यत है प्राण देने को अभिमन्यु
गणतंत्र के जन-गण का मन टटोलते हुए
गर्भ में पिता से सीखी हुई
आधी-अधूरी युद्ध-विद्या के ही सहारे।

इस युद्ध में अभिमन्यु की मृत्यु तो तय है ही
पांडवों की हार भी निश्चित है
क्योंकि इसमें जीत के लिए
केवल संख्या-बल ही निर्णायक है।

यहाँ देख कर भी अनदेखा कर दिया जाएगा
दुश्शासन का चीर-हरण जैसा कुकृत्य,
यहाँ सुन कर भी अनसुना कर दिया जाएगा
गीता का मर्मोपदेश,
यहाँ एक नहीं
हजारों शिखंडियों की भीड़ इकट्ठी जुटेगी नित्य
पितामहों का वध करने,
यहाँ नित्य बोलेंगे झूठ युधिष्ठिर
गुरुओं को मृत्यु के मुँह की ओर धकेलने के लिए,
यहाँ पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ से ही
कोई विचार नहीं होगा धर्म-अधर्म का
न ही किसी भी रथी-महारथी के मन में
किसी एक पक्ष के प्रति कोई आस्था या लगाव होगा
यहाँ पूरी मौकापरस्ती के साथ युद्ध होगा दोनों तरफ से
और खुलेआम बेंचेंगे रथी-महारथी सब
अपना-अपना संख्या-बल तरह-तरह के लालच में।

इस तरह के कपट-युद्ध में
मारा ही जाएगा जनतंत्र का अभिमन्यु भरी दोपहरी,
चलो हम सब मिल-जुल कर सोचें कि
कैसे बचाई जाय अब इस जनतंत्र की साख
आज इस रण-भूमि में सूर्यास्त होने के पहले ही।

उमेश चौहान

विष में अमृत होत है, भगवत वर परसाद / गंगादास

विष में अमृत होत है, भगवत वर परसाद ।
दुश्मन मित्तरवत सबी, तपवत् सब परमाद ।।

तपवत् सब परमाद दया भगवत की जिनपै ।
सागर गो-पद-तुल्य राम राजी जिन किन पै ।।

गंगादास कहें समझ वेद ज्ञापक हैं इसमें ।
मीरा को हो गया महा अमृत रस विष में ।।

गंगादास

दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो / इफ़्तिख़ार आरिफ़

दयार-ए-नूर में तिरा-शबों का साथी हो
कोई तो हो जो मेरी वहशतों का साथी हो

मैं उस से झूट भी बोलूँ तो मुझ से सच बोले
मेरे मिज़ाज के सब मौसमों का साथी हो

मैं उस के हाथ न आऊँ वो मेरा हो के रहे
मैं गिर पडूँ तो मेरी पस्तियों का साथी हो

वो मेरे नाम की निस्बत से मोतबर ठहरे
गली-गली मेरी रुसवाइयों का साथी हो

करे क़लाम जो मुझ से तो मेरे लहज़े में
मैं चुप रहूँ तो मेरे तेवरों का साथी हो

मैं अपने आप को देखूँ वो मुझ को देखे जाए
वो मेरे नफ़्स की गुमराहियों का साथी हो

वो ख़्वाब देखे तो देखे मेरे हवाले से
मेरे ख़याल के सब मंज़रों का साथी हो

इफ़्तिख़ार आरिफ़

दूरियाँ / इला प्रसाद

 
सब कुछ बड़ा है यहाँ
आकार में
इस देश की तरह
असुरक्षा, अकेलापन और डर भी
तब भी लौटना नहीं होता
अपने देश में।
 
वापसी पर
अपनों की ही
अस्वीकृति का डर
कचोटता है।

वहाँ भी
सम्बन्ध तभी तक हैं
जब तक दूरियाँ हैं!

इला प्रसाद

इज़्हार / फ़राज़

   इज़्हार[1]

पत्थर की तरह अगर मैं चुप रहूँ
तो ये न समझ कि मेरी हस्ती[2]
बेग़ान-ए-शोल-ए-वफ़ा[3] है
तहक़ीर[4] से यूँ न देख मुझको
ऐ संगतराश[5]!
 तेरा तेशा[6]
मुम्किन[7] है कि ज़र्बे-अव्वली[8] से
पहचान सके कि मेरे दिल में
जो आग तेरे लिए दबी है
वो आग ही मेरी ज़िंदगी है

अहमद फ़राज़

तुम आए हो तुम्हें भी आज़मा कर देख लेता हूँ / अहमद मुश्ताक़

तुम आए हो तुम्हें भी आज़मा कर देख लेता हूँ
तुम्हारे साथ भी कुछ दूर जा कर देख लेता हूँ

हवाएँ जिन की आँधी खिड़कियों पर सर पटकती हैं
मैं उन कमरों में फिर शमएँ जला कर देख लेता हूँ

अजब क्या इस क़रीने से कोई सूरत निकल आए
तेरी बातों को ख़्वाबों से मिला कर देख लेता हूँ

सहर-दम किरचियाँ टूटे हुए ख़्वाबों की मिलती हैं
तो बिस्तर झाड़ कर चादर हटा कर देख लेता हूँ

बहुत दिल को दुखाता है कभी जब दर्द-ए-महजूरी
तेरी यादों की जानिब मुस्कुरा कर देख लेता हूँ

उड़ा कर रंग कुछ होंटों से कुछ आँखों से कुछ दिल से
गए लम्हों को तस्वीरें बना कर देख लेता हूँ

नहीं हो तुम भी वो अब मुझ से यारो क्या छिपाओगे
हवा की सम्त को मिट्टी उड़ा कर देख लेता हूँ

सुना है बे-नियाज़ी ही इलाज-ए-ना-उम्मीदी है
ये नुस्ख़ा भी कोई दिन आज़मा कर देख लेता हूँ

मोहब्बत मर गई ‘मुश्ताक़’ लेकिन तुम न मानोगे
मैं ये अफ़वाह भी तुम को सुना कर देख लेता हूँ

अहमद मुश्ताक़

फ़न तलाशे है दहकते हुए जज़्बात का रंग / 'अना' क़ासमी

फ़न तलाशे है दहकते हुए जज़्बात का रंग
देख फीका न पड़े आज मुलाक़ात का रंग

हाथ मिलते ही उतर आया मेरे हाथों में
कितना कच्चा है मिरे दोस्त तिरे हाथ का रंग

है ये बस्ती तिरे भीगे हुए कपड़ों की तरह
तेरे इस्नान-सा लगता है ये बरसात का रंग

शायरी बोलूँ इसे या के मैं संगीत कहूँ
एक झरने-सा उतरता है तिरी बात का रंग

ये शहर शहरे-मुहब्बत की अलामत था कभी
इसपे चढ़ने लगा किस-किस के ख़्यालात[1] का रंग

है कोई रंग जो हो इश्क़े-ख़ुदा से बेहतर
अपने आपे में चढ़ा लो उसी इक ज़ात का रंग

'अना' क़ासमी

झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं / ख़ालिद महमूद

झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं
कबूतर भी वही करने लगे जो बाज़ करते हैं

वही क़िस्से वही बातें के जो ग़म्माज़ करते हैं
तेरे हम-राज़ करते हैं मेरे दम-साज़ करते हैं

ब-सद हीले बहाने ज़ुल्म का दर बाज़ करते हैं
वही जाँ-बाज़ जिन पर हर घड़ी हम नाज़ करते हैं

ज़्यादा देखते हैं जब वो आँखें फेर लेते हैं
नज़र में रख रहे हों तो नज़र-अंदाज़ करते हैं

सताइश-घर के पंखों से हवा तो कम ही आती है
मगर चलते हैं जब ज़ालिम बहुत आवाज़ करते हैं

ज़माने भर को अपना राज़-दाँ करने की ठहरी है
तो बेहतर है चलो उसे शोख़ को हम-राज़ करते हैं

डराता है बहुत अंजाम-ए-नमरूदी मुझे ‘ख़ालिद’
ख़ुदा लहजे में जब बंदे सुख़न आगाज़ करते हैं

ख़ालिद महमूद

‘इंशा’ जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या / इब्ने इंशा

‘इंशा’ जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन को देखो तो सही सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में
क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या

फिर हिज्र की लम्बी रात मियाँ संजोग की तो ये एक घड़ी
जो दिल में है लब पर आने दो शरमाना क्या घबराना क्या

उस रोज़ जो उन को देखा है अब ख़्वाब का आलम लगता है
उस रोज़ जो उन से बात हुई वो बात भी थी अफ़्साना क्या

उस हुस्न के सच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें
जिसे देख सकें पर छू न सकें वौ दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या

उस को भी जला दुखते हुए मन को इक शोला लाल भबूका बन
यूँ आँसू बन बह जाना क्या यूँ माटी में मिल जाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यूँ बन में न जा बिसराम करे
दीवानों की सी बात करे तो और करे दीवाना क्या

इब्ने इंशा

चक्रान्त शिला – 17 / अज्ञेय

न कुछ में से वृत्त यह निकला कि जो फिर
शून्य में जा विलय होगा
किन्तु वह जिस शून्य को बाँधे हुए है-
उस में एक रूपातीत ठंडी ज्योति है।

तब फिर शून्य कैसे है-कहाँ है?
मुझे फिर आतंक किस का है?
शून्य को भजता हुआ भी मैं

पराजय बरजता हूँ।
चेतना मेरी बिना जाने
प्रभा में निमजती है
मैं स्वयं उस ज्योति से अभिषिक्त सजता हूँ।

अज्ञेय

ताजमहल की छाया में / अज्ञेय

मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ,
या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।
साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर-
तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।

पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे
या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे ?
हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का-
औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे?

हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,
देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये
व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:
क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये!

मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी,
पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी!
जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का
प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !

२० दिसम्बर १९३५, आगरा

अज्ञेय

जी भर / अर्चना भैंसारे

मैं चाहती थी जी भर देखना तुम्हें

सोचा, समझ जाओगे
बिना कहे मन की बात
छोटे से छोटा पल
जो बीता तुम्हारे साथ
याद कर किया
लम्बा इंतज़ार

तुम आओ तो बता सकूँ
कि, बुने कुछ सपने तुम्हें लेकर
पर हमेशा मिले तुम हमेशा
किसी न किसी उधेड़बुन में
जुगाड़ करते कुछ न कुछ
और मैं सोचती रही
शायद अब हो जाओ फ़ुर्सत में
तो देख सकूँ
तुम्हें जी भर ।

अर्चना भैंसारे

करम गति टारै / कबीर

करम गति टारै नाहिं टरी॥ टेक॥

मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी सिधि के लगन धरि।
सीता हरन मरन दसरथ को बनमें बिपति परी॥ १॥

कहँ वह फन्द कहाँ वह पारधि कहॅं वह मिरग चरी।
कोटि गाय नित पुन्य करत नृग गिरगिट-जोन परि॥ २॥

पाण्डव जिनके आप सारथी तिन पर बिपति परी।
कहत कबीर सुनो भै साधो होने होके रही॥ ३॥

कबीर

नदी की कहानी / कन्हैयालाल नंदन

नदी की कहानी कभी फिर सुनाना,
मैं प्यासा हूँ दो घूँट पानी पिलाना।

मुझे वो मिलेगा ये मुझ को यकीं है
बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना

मुहब्बत का अंजाम हरदम यही था
भँवर देखना कूदना डूब जाना।

अभी मुझ से फिर आप से फिर किसी
मियाँ ये मुहब्बत है या कारखाना।

ये तन्हाईयाँ, याद भी, चान्दनी भी,
गज़ब का वज़न है सम्भलके उठाना।

कन्हैयालाल नंदन

ये जो चिलमन है दुश्मन है हमारी / आनंद बख़्शी

 
ये जो चिलमन है दुश्मन है हमारी
ये जो चिलमन है दुश्मन है हमारी
बड़ी शर्मीली, बड़ी शर्मीली दुल्हन है हमारी

दूसरा और कोई यहाँ क्यूँ रहे
दूसरा और कोई यहाँ क्यूँ रहे
हुस्न और इश्क़ के दरमियां क्यूँ रहे
दरमियां क्यूँ रहे
ये यहाँ क्यूँ रहे
हाँ जी हाँ क्यूँ रहे
ये जो आँचल है शिकवा है हमारा
क्यूँ छुपता है चेहरा ये तुम्हारा
ये जो ...

कैसे दीदार-ए-आशिक़ तुम्हारा करे
रूखे रोशन का कैसे नज़ारा करे
हाँ नज़ारा करे
हो इशारा करे
हाँ पुकारा करे
ये जो गेसू हैं बादल हैं क़सम से
कैसे बिखरे है गालों पे सनम के
ये जो ...

रुख से परदा ज़रा जो सरकने लगा
उफ़ ये कम्बख्त दिल क्यूँ मचलने लगा
क्यूँ मचलने लगा
क्यूँ मचलने लगा
हाँ तड़पने लगा
ये जो ...

आनंद बख़्शी

सर्जना के क्षण / अज्ञेय

एक क्षण भर और
रहने दो मुझे अभिभूत
फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं
ज्योति शिखायें
वहीं तुम भी चली जाना
शांत तेजोरूप!

एक क्षण भर और
लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते!
बूँद स्वाती की भले हो
बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से
वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को
भले ही फिर व्यथा के तम में
बरस पर बरस बीतें
एक मुक्तारूप को पकते!

दिल्ली, 17 मई, 1956

अज्ञेय

बुजुर्ग पिता के झुके कन्धे हमें दुख देते हैं / उमाशंकर चौधरी

मेरे सामने पिता की जो तस्वीर है
उसमें पिता एक कुर्ते में हैं
पिता की यह तस्वीर अधूरी है
लेकिन बगैर तस्वीर में आए भी मैं जानता हूँ कि
पिता कुर्ते के साथ सफ़ेद धोती में हैं
पिता ने अपने जीवन में कुर्ता-धोती को छोड़कर भी
कुछ पहना हो मुझे याद नहीं है
हाँ, मेरी कल्पना में पिता
कभी-कभी कमीज़ और पैंट में दिखते हैं
और बहुत अजीब से लगते हैं

मेरी माँ जब तक जीवित रहीं
पिता ने अपने कुर्ते और अपनी धोती पर से
कभी कलफ़ को हटने नहीं दिया
लेकिन माँ की जबसे मृत्यु हुई है
पिता अपने कपड़ों के प्रति उदासीन से हो गए हैं

खैर उस तस्वीर में पिता अपने कुर्तें में हैं
और पिता के कन्धे झूल से गए हैं
उस तस्वीर में पिता की आस्तीन
नीचे की ओर लटक रही हैं
पहली नज़र में मुझे लगता है कि पिता के दर्ज़ी ने
उनके कुर्ते का नाप ग़लत लिया है
परन्तु मैं जानता हूं कि यह मेरे मन का भ्रम है
पिता के कन्धे वास्तव में बाँस की करची की तरह
नीचे की तरफ लटक ही गए हैं

पिता बूढ़े हो चुके हैं इस सच को मैं जानता हूँ
लेकिन मैं स्वीकार नहीं कर पाता हूँ
मैं जिन कुछ सचों से घबराता हूँ यह उनमें से ही एक है

एक वक़्त था जब हम भाई-बहन
एक-एक कर पिता के इन्हीं मज़बूत कन्धों पर
मेला घूमा करते थे
मेले से फिरकी ख़रीदते थे
और पिता के इन्हीं कन्धों पर बैठकर
उसे हवा के झोंकों से चलाने की कोशिश करते थे
तब हम चाहते थे कि पिता तेज़ चलें ताकि
हमारी फिरकी तेज़ हवा के झोंकों में ज़्यादा ज़ोर से नाच सके

हमारे घर से दो किलोमीटर दूर की हटिया में
जो दुर्गा मेला लगता था उसमें हमने
बंदर के खेल से लेकर मौत का कुआँ तक देखा था
पिता हमारे लिए भीड़ को चीरकर हमें एक ऊँचाई देते थे
ताकि हम यह देख सकें कि कैसे बन्दर
अपने मालिक के हुक़्म पर रस्सी पर दौड़ने लग जाता था
हमने अपने जीवन में जितनी भी बार बाइस्कोप देखा
पिता अपने कन्धे पर ही हमें ले गए थे

हमारा घर तब बहुत कच्चा था
और घर के ठीक पिछवाड़े में कोसी नदी का बाँध था
कोसी नदी में जब पानी भरने लगता था
तब साँप हमारे घर में पनाह लेने दौड़ जाते थे
तब हमारे घर में ढिबरी जलती थी
और खाना जलावन पर बनता था
ऐसा अक्सर होता था कि माँ रसोई में जाती और
करैत साँप की साँस चलने की आवाज़ सुनकर
दूर छिटककर भाग जाती
उस दिन तो हद हो गई थी जब
कड़ाही में छौंक लगाने के बाद माँ ने
कटी सब्ज़ी के थाल को उस कड़ाही में उलीचने के लिए उठाया
और उस थाल की ही गोलाई में करैत साँप
उभर कर सामने आ गया

हमारे जीवन में ऐसी स्थितियाँ तब अक्सर आती थीं
और फिर हम हर बार पिता को
चाय की दुकान पर से ढूँढ़ कर लाते थे
हमारे जीवन में तब पिता ही सबसे ताक़तवर थे
और सचमुच पिता तब ढूँढ़कर उस करैत साँप को मार डालते थे

हमारे आँगन में वह जो अमरूद का पेड़ था
पिता हमारे लिए तब उस अमरूद के पेड़ पर
दनदना कर चढ़ जाते थे
और फिर एक-एक फुनगी पर लगे अमरूद को
पिता तोड़ लाते थे
हम तब पिता की फुर्ती को देख कर दंग रहते थे
पिता तब हमारे जीवन में एक नायक की तरह थे

मेरे पिता तब मज़बूत थे
और हम कभी सोच भी नहीं पाते थे कि
एक दिन ऐसा भी आएगा कि
पिता इतने कमज़ोर हो जाएँगे
कि अपने बिस्तर पर से उठने में भी उन्हें
हमारे सहारे की ज़रूरत पड़ जाएगी

मेरे पिता जब मेरे हाथ और मेरे कन्धे का सहारा लेकर
अपने बिस्तर से उठते हैं तब
मेरे दिल में एक हूक-सी उठती है और
मेरी देखी हुई उनकी पूरी जवानी
मेरी आँखों के सामने घूम जाती है

मेरे बुज़ुर्ग पिता
अब कभी तेज़ क़दमों से चल नहीं पाएँगे
हमें अपने कन्धों पर उठा नहीं पाएँगे
अमरूद के पेड़ पर चढ नहीं पाएँगे
और अमरूद का पेड़ तो क्या
मैं जानता हूं मेरे पिता अब कभी आराम से
दो सीढ़ी भी चढ़ नहीं पाएँगे

लेकिन मैं पिता को हर वक़्त सहारा देते हुए
यह सोचता हूं कि क्या पिता को अपनी जवानी के वे दिन
याद नहीं आते होंगे
जब वे हमें भरी बस में अंदर सीट दिलाकर
ख़ुद दरवाज़े पर लटक कर चले जाते थे
परबत्ता से खगड़िया शहर
क्या अब पिता को अपने दोस्तों के साथ
ताश की चौकड़ी जमाना याद नहीं आता होगा
क्या पिता अब कभी नहीं हँस पाएँगे अपनी उन्मुक्त हँसी

मेरे पिता को अब अपनी जवानी की बातें
याद है या नहीं मुझे पता नहीं
लेकिन मैं सोचता हूँ कि
अगर वे याद कर पाते होंगे वे दिन
तो उनके मन में एक अजीब-सी बेचैनी ज़रूर होती होगी
कुछ ज़रूर होगा जो उनके भीतर झन्न से टूट जाता होगा ।

उमाशंकर चौधरी

तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है / ग़ालिब

तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है
मिरा सर रंज-ए-बालीं है मिरा तन बार-ए-बिस्तर है
    
सरिश्क-ए-सर ब-सहरा दादा नूर-उल-ऐन-ए-दामन है
दिल-ए-बे-दस्त-ओ-पा उफ़्तादा बर-ख़ुरदार-ए-बिस्तर है

ख़ुशा इक़बाल-ए-रंजूरी अयादत को तुम आए हो
फ़रोग-ए-शम-ए-बालीं ताल-ए-बेदार-ए-बिस्तर है

ब-तूफ़ाँ-गाह-ए-जोश-ए-इज़्तिराब-ए-शाम-ए-तन्हाई
शुआ-ए-आफ़्ताब-ए-सुब्ह-ए-महशर तार-ए-बिस्तर है

अभी आती है बू बालिश से उस की ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं की
हमारी दीद को ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा आर-ए-बिस्तर है

कहूँ क्या दिल की क्या हालत है हिज्र-ए-यार में ग़ालिब
कि बेताबी से हर-यक तार-ए-बिस्तर ख़ार-ए-बिस्तर है

ग़ालिब

Monday, October 27, 2014

कैसे कैसे लोग / कैलाश गौतम

यह कैसी अनहोनी मालिक यह कैसा संयोग
कैसी-कैसी कुर्सी पर हैं कैसे-कैसे लोग ?

जिनको आगे होना था
वे पीछे छूट गए
जितने पानीदार थे शीशे
तड़ से टूट गए
प्रेमचंद से मुक्तिबोध से कहो निराला से
क़लम बेचने वाले अब हैं करते छप्पन भोग ।।

हँस-हँस कालिख बोने वाले
चाँदी काट रहे
हल की मूँठ पकड़ने वाले
जूठन चाट रहे
जाने वाले जाते-जाते सब कुछ झाड़ गए
भुतहे घर में छोड़ गए हैं सौ-सौ छुतहे रोग ।।

धोने वाले हाथ धो रहे
बहती गंगा में
अपने मन का सौदा करते
कर्फ्यू-दंगा में
मिनटों में मैदान बनाते हैं आबादी को
लाठी आँसू गैस पुलिस का करते जहाँ प्रयोग ।।

कैलाश गौतम

उम्मीद / ऋतु पल्लवी

तुम्हारा प्यार डायरी के पन्ने पर
स्याही की तरह छलक जाता है
और मैं उसे समेट नहीं पाती
मेरे मन की बंजर धरती उसे सोख नहीं पाती.

रात के कोयले से घिस -घिस कर
मांजती हूँ मैं रोज़ दिया
पर तुम्हारे रोशन चेहरे की सुबह
उसमे कभी देख नहीं पाती.

सीधी राह पर चलते फ़कीर
से तुम्हारे भोले सपने
चारों ओर से घिरी पगडंडियों पर से
रोज़ सुनती हूँ उन्हें
पर हाथ बढाकर रोक नहीं पाती.

मेरा कोरा मन ,रीता दिया
उलझे सपने ,रोज़ कोसते हैं मुझे
फिर भी जिए जाती हूँ
क्यूंकि जीवन से भरी ये तुम्हारी ही हैं उम्मीदें
जिनको मायूसी रोक नहीं पाती और एकाकीपन मार नहीं पाता….

ऋतु पल्लवी

घर-4 / अरुण देव

पत्थरों के पास घर के आदिम अनुभव हैं
अपनी दीवारों पर सजा ली है उसने मनुष्यों की यह सभ्यता
अब भी वह हर एक घर में है
हर घर एक गुफ़ा है
पत्थरों की मुलायम और नर्म छाँह में
खिले हैं संततियों के फूलों जैसे होंठ
पत्थरों के पास आरक्त तलवों की स्मृतियाँ हैं
पत्थरों ने अपनी गोद में बिठाया है बाल सँवारती सुन्दरियों को
पत्थर की शैया पर पूर्वजों की भर आँख रातें हैं


पत्थर सीमेंट के निराकार में सामने था
कोई इस तरह भी अपने को मिटा सकता है
कि उसका होना भी अँगुलियों से सरक जाए ।

अरुण देव

पुण्यसलिला / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

 
है पुनीत कल्लोल सकल कलिकलुष-विदारी।
है करती शुचि लोल लहर सुरलोक-बिहारी।
भूरि भाव मय अभय भँवर है भवभय खोती।
अमल धावल जलराशि है समल मानस धाोती।
बहुपूत चरित विलसित पुलिन है पामरता-पुंज यम।
है विमल बालुका पाप-कुल-कदन काल-करवाल सम।1।

वन्दनीयतम वेद मंत्रा से है अभिमंत्रिात।
आगम के गुणगान-मंच पर है आमंत्रिात।
वाल्मीक की कान्त उक्ति से है अभिनन्दित।
भारत के कविता-कलाप द्वारा है वन्दित।
नाना-पुराण यश-गान से है महान-गौरव भरी।
सुरलोक-समागत शुचि-सलिल भूसुर-सेवित-सुरसरी।2।

पाहन उर से हो प्रसूत सुरधाुनि की धारा।
द्रवीभूत है परम, मृदुलता-चरम-सहारा।
रज-लुंठित हो रुचिर-रजत-सम कान्तिवती है।
असरल-गति हो सहज-सरलता-मूर्तिमती है।
हो निम्न-गामिनी कर सकी हिमगिरि-शिर ऊँचा परम।
संगम द्वारा उसके हुआ पतित-पयोनिधिा पूज्यतम।3।

ब्रज-भू ब्रजवल्लभ पुनीत रस से बहु-सरसी।
है कलिन्द-नन्दिनी अंक में उसके बिलसी।
अवधा अवधापति वर-विभूति से भूतिवती बन।
सरयू उसमें हुई लीन कर के विलीन तन।
भारत-गौरव नरदेव के गौरव से हो गौरवित।
कर सुर समान बहु असुर को अवनि लसि है सुरसरित।4।

जो यह भारत-धारा न सुर धाुनि-धारा पाती।
सुजला सुफला शस्य-श्यामला क्यों कहलाती।
उपबन अति-रमणीय विपिन नन्दन-बन जैसे।
कल्प-तुल्य पादप-समूह पा सकती कैसे।
बिलसित उसमें क्यों दीखते अमरावति ऐसे नगर।
जिनकी विलोक महनीयता मोहित होते हैं अमर।5।

है वह माता दयामयी ममता में माती।
है अतीव-अनुराग साथ पय-मधाुर पिलाती।
भाँति भाँति के अन्न अनूठे फल है देती।
रुज भयावने निज प्रभाव से है हर लेती।
कानों में परम-विमुग्धा-कर मधाुमय-धवनि है डालती।
कई कोटि संतान को प्रतिदिन है प्रतिपालती।6।

भूतनाथ किस भाँति भवानी-पति कहलाते।
पामर-परम, पुनीत-अमर-पद कैसे पाते।
आर्य-भूमि में आर्य-कीर्ति-धारा क्यों बहती।
तीर्थराजता तीर्थराज में कैसे रहती।
क्यों सती के सदृश दूसरी दुहिता पाता हिम अचल।
क्यों कमला के बदले जलधिा पाता हरिपद कमलजल।7।

राजा हो या रंक अंक में सब को लेगी।
चींटी को भी नीर चतुर्मुख के सम देगी।
काँटों से हो भरी कुसुम-कुल की हो थाती।
सभी भूमि पर सुधाातुल्य है सुधाा बहाती।
जीते है जीवन-दायिनी अमर बनाती है मरे।
जो तरे न तारे और के वे सुरसरि तारे तरे।8।

चतुरानन ने उसे चतुरता से अपनाया।
पंचानन ने शिर पर आदर सहित चढ़ाया।
सहस-नयन के सहस-नयन में रही समाई।
लाखों मुख से गयी गुणावलि उसकी गाई।
कर मुक्ति-कामना कूल पर कई कोटि मानव मरे।
पीपी उसका पावन-सलिल अमित-अपावन हैं तरे।9।

फैली हिमगिरि से समुद्र तक सुरसरि धारा।
काम हमारा सदा साधा सकती है सारा।
विपुल अमानव का वह मानव कर लेवेगी।
जीवित जाति समान सबल जीवन देवेगी।
जो बल हो बुध्दि विवेक हो वैभव हो विश्वास हो।
तो क्यों न बनें सुरतुल्य हम क्यों न स्वर्ग आवास हो।10।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

धौलाधार / अनूप सेठी

धौलाधार!
तुझे मैं छोड़ आया हूं
यह सोच नहीं पाता
संस्कारी मन सी धवलधार
तुझे लिए हुए सरकता हूं
मैं धुंआखोर सड़कें
काली कलूटी

तू विचारना मत ज्यादा
मेरे तेरे बीच कुछ सैंकड़ा मील पटड़ियां उग आई हैं
फिर भी हम घूमेंगे सागर तट साथ साथ

कल समुद्र सलेटी रंग का
मुझे सलवट पड़ी चादर सा लगा
आसमान ने उसे काट रखा था पाताल व्यापी

यहां कोई नहीं जानता
समुद्र का ठिकाना
आकाश का पता
देखो न मैं भी कल
बिस्तर की चादर समझ के लौट आया
पर उस तट से लगाव है मुझे
तेरी घाटियों सा

तू सोच मत
जहां तक वह चादर दिखती है
वहां तुझे रख दूंगा अभ्रभेदी

तब यह जो जंगल बिछा है अंधा
धुंएबाज आदमखोर
कुछ तो फाटक पिघलाएगा अपने

फिर भी इस आदमखोर जंगल से मैत्री कर पाऊंगा
यह सोच नहीं पाता
वैसे ही जैसे
धौलाधार!
तुझे मैं छोड़ आया हूं
यह सोच नहीं पाता

(1983)

अनूप सेठी

प्‍यार एक अफ़वाह है / अरुणा राय

प्‍यार
एक अफ़वाह है
जिसे
दो जिद्दी सरल हृदय
उड़ाते हैं
और उसकी डोर काटने को उतावला
पूरा जहान
उसके पीछे भागता जाता है

पर
उसकी डोर
दिखे
तो कटे

तो
कट कट जाता है
सारा जहान
उसकी अदृश्‍य डोर से

यह सब देख
तालियाँ बजाते
नाचते हैं प्रेमी

और गुस्‍साया जहान
अपने तमाम सख्‍त इरादे
उन पर बरसा डालता है

पर अंत तक
लहूलुहान वे
हँसते जाते हैं
हँसते जाते हैं

अफ़वाह
ऊँची
और ऊँची
उड़ती जाती है।

अरुणा राय

घर घर आपस में दुश्मनी भी है / अहसन यूसुफ़ ज़ई

घर घर आपस में दुश्मनी भी है
बस खचा-खच भी हुई भी है

एक लम्हे के वास्ते ही सही
काले बादल में रौशनी भी है

नींद को लोग मौत कहते हैं
ख़्वाब का नाम ज़िंदगी भी है

रास्ता काटना हुनर तेरा
वर्ना आवाज़ टूटती भी है

ख़ूबियों से है पाक मेरी ज़ात
मेरे ऐबों में शाइरी भी है

अहसन यूसुफ़ ज़ई

गोआ / कुमार अंबुज

चित्रों में कितना कम जिंदगी में फैला विस्तार अटूट
देश के नक्शे में चमकता हुआ एक किडनी की तरह
ललचाने वाली बदनामियों और प्रसिद्धि के बीच
अपनी लापरवाही में मस्त
हर कदम पर मिलते नारियल के वृक्ष मौज में हिलते-डुलते
ईसाइयत के निशान हजारों जिनमें पुर्तगाली चमक का एहसास बराबर
जहाँ भी बैठो मस्ती में या थक कर वहीं पास कहीं दिखता एक क्रॉस
समुद्र की नमक घुली हवा में साँस लेते हम जिसमें रसायनों की गंध कम
लेकिन खाना परोसता हुआ आदमी कहता है -
अब नहीं रही पहले-सी हवा !
मीलों फैले बीचों पर पर्यटकों का उत्सव अनंत
मौज-मस्ती के दृश्यों के बीच अविस्मरणीय वह कृशकाय अधेड़ जोड़ा
लहरों के साथ आई सीपियों को भूख से चलित हाथों से बीनता
मछलियों की गंध के बीच विदेशी ग्राहकों को पटाते आदमी निरक्षर बोलते अंग्रेजी
रेत के मुलायम गद्दे में धँसे हम अवाक् देखते डूबते सूर्य की अरुण छटा
जो फिर एक बार शब्दातीत
पास में ही गीली बालू पर समुद्री कीट के रेंगने के निशान
जिन्हें अगले पल में ही मिटाने आ रही वह एक तेज लहर
सुबह छह बजे की उजास में धुली सड़कें चमकती गलियाँ
रात आठ बजे से ही फिर अपनी चुप्पी के रहस्य में डूबती हुईं
लोग घरों में बंद चुपचाप लेते चुस्कियाँ
और वहीं प्रकृति में पकते काजुओं की खुशबू
ज़मीन में दफ़न हाँडी में से उठती है होरॉक की गंध
शाम होते ही हर घर धीरे-धीरे तब्दील होता किसी शराबखाने में
रोशनी की जरा-सी दरार में मिल जाती पीने की गुंजाइश
फिर समुद्र की तरफ से आने वाली हवाओं में झूमता शहर पणजी
घरों की गुल बत्तियों से पैदा हलके अँधेरे में
सोता हुआ चैतन्य नींद में
पुल के किनारे जलती बत्तियों की लंबी कतार की परछाइयाँ
गिर कर चमकती हैं खाड़ी के हरे-नीले जल में
उन्नीस सौ इकसठ की याद अभी धूमिल नहीं
घर-घर में एक बुजुर्ग जैसे उत्सर्ग और लंबी यातना का किस्सा
नेहरू की गोआ-नीति को ले कर नाखुश लोग शहीदों के लिए भावुक
बस्तियाँ नष्ट होती हैं इतना नव-निर्माण
हर तरफ से आती हैं सरिए काटने और फरमों में कंक्रीट डालने की आवाजें
भीतर गाँवों में हरीतिमा से घिरा वही विपन्न जीवन
हिप्पियों और नशेलचियों के लिए एक मुफीद जगह
पर्यटन केंद्रों में श्रेष्ठता की होड़ ने सस्ती कर दी है शराब
एक पर्यटक की तरह भी देखते हुए कितना कम
लौटते हैं हम जुड़वाँ पुलों में से एक को पार करते हुए
जहाँ से रोशन जहाज की तरह चमकता हुआ
दिखता है विधान-सभा का श्वेत-भवन !

कुमार अंबुज

काजल / अविनाश मिश्र

तुम्हारी आँखों में बसा
वह रात की तरह था
दिन की कालिमा को सँभालता
उसने मुझे डूबने नहीं दिया
कई बार बचाया उसने मुझे
कई बार उसकी स्मृतियों ने

अविनाश मिश्र

घोड़े दौड़ रहे / कुमार विजय गुप्त

दौड़ाये राजे रजवाड़ों ने
दौड़ाये सामन्तों सुल्तानों ने
दौड़ाये साहुकारों जमींदारों ने
और अभी भी दौड़ाये जा रहे घोड़े

हरेक ऋतुओं में दौड़ रहे घोड़े
हरेक दिशाओं में दौड़ रहे घोड़े
कि उनके थूथनों पे लगा है जिंदा लहू
उनके खुरों में फंसी मासूम चीखें

रौंद रहे खेत-खलिहान
उजाड़ रहे बाग-बगीचे
झुग्गी झोपड़ियों तक को नहीं बख्श रहे
बेलगाम दौड़ रहे घोड़े

आकाश में देवतागण
छतों पे बुद्धिजीवीवृन्द
नाले के किनारे भीड़ भेंड़ दीन-हीन
हाथभर की दूरी से गुजर रहे घोड़े

सर्द और निस्तब्ध रात
नालों टापों के उन्माद का सही वक्त
घोड़ों ने झोंक दी है सारी शक्ति

इधर घोडे़ दौड़ रहे
उधर खुश हैं घुड़सवार
कि जहॉं तक दौड़ जायेंगे घोड़े
वे सारे होंगे उनके अपने
गोया यह घरती, धरती नहीं
उनका रेस ग्राउंड हो !

कुमार विजय गुप्त

सावन / उमा अर्पिता

आज मेरे शहर में
सावन की पहली फुहार पड़ी है,
कुछ वैसी ही, जिसमें
पार साल, हम साथ-साथ
भीगे थे…
मिट्टी आज भी वैसे ही
गंधा रही है,
हवा की मादकता भी/वैसी ही है,
और
कजलाया है अंबर भी आज
उसी शाम की तरह, जब
सावन की तेज बौछारों में
भीगते हुए/तुम्हारी आँखों में
उतर आई थी
सपनों की हरियाली
और
जीवन एक खुशनुमा
फूल-सा लगने लगा था...!
आज/आज भी
सब कुछ
वैसा ही है, मगर तुम
दूर/कहीं दूर
बहुत दूर हो...!

उमा अर्पिता

कविता मेरी / कैलाश गौतम

आलंबन, आधार यही है, यही सहारा है
कविता मेरी जीवन शैली, जीवन धारा है

यही ओढ़ता, यही बिछाता
यही पहनता हूँ
सबका है वह दर्द जिसे मैं
अपना कहता हूँ
      देखो ना तन लहर-लहर
      मन पारा-पारा है।

पानी-सा मैं बहता बढ़ता
रुकता-मुड़ता हूँ
उत्सव-सा अपनों से
जुड़ता और बिछुड़ता हूँ
      उत्सव ही है राग हमारा
      प्राण हमारा है ।

नाता मेरा धूप-छाँह से
घाटी टीलों से
मिलने ही निकला हूँ
घर से पर्वत-झीलों से
     बिना नाव-पतवार धार में
     दूर किनारा है ।

कैलाश गौतम

Sunday, October 26, 2014

वह नहीं कहती / अशोक वाजपेयी

उसने कहा
उसके पास एक छोटा सा हृदय है
जैसे धूप कहे
उसके पास थोड़ी सी रौशनी है
आग कहे
उसके पास थोड़ी सी गरमाहट---

धूप नहीं कहती उसके पास अंतरिक्ष है
आग नहीं कहती उसके पास लपटें
वह नहीं कहती उसके पास देह ।

अशोक वाजपेयी

आदत / आशुतोष दुबे

वह धूल की तरह है
जिद्दी और अजेय

कई बार हम उसका मुक़ाबला करना चाहते हैं
मगर एक पस्त कोशिश
और फिर उसकी अनदेखी
और उसके बाद
घुटने टेकते हुए
अपनी पराजय का बेआवाज़ इकरारनामा
यही आदत का मानचित्र है

दिलचस्प हैं आदत के खेल
मसलन, हालाँकि मरना जन्म लेते ही शुरू हो गया था
पर मारने की आदत नहीं पड़ती
जीने की पड़ जाती है
और जीवन कैसा भी हो
मरना मुश्किल होता जाता है

साथ की आदत हो जाती है
जैसे उम्मीद की
और इन्तज़ार की भी

लेकिन कभी-कभी
उससे अपने-आप में
अचानक मुलाकात होती है
हम उसे स्तब्ध से पहचानते हैं
कि वह इतने दिनों से
रही आई है हममें
और हम पहली बार जान रहे हैं
कि वह हमारी ही आदत है ।

आशुतोष दुबे

ब-नाला हासिल-ए-दिल-बस्तगी फ़राहम कर / ग़ालिब

ब-नाला हासिल-ए-दिल-बस्तगी फ़राहम कर
मता-ए-ख़ाना-ए-ज़ंजीर जुज़ सदा मालूम

ब-क़द्र-ए-हौसला-ए-इश्क़ जल्वा-रेज़ी है
वगरना ख़ाना-ए-आईना की फ़ज़ा मालूम

'असद' फ़रेफ्ता-ए-इंतिख़ाब-ए-तर्ज़-ए-जफ़ा
वगरना दिलबरी-ए-वादा-ए-वफ़ा मालूम

ग़ालिब

देखिए अब बैठता है ऊँट किस करवट मियाँ / ओमप्रकाश यती


आएगी सरकार किसकी, है बड़ा संकट मियाँ
देखिए अब बैठता है ऊँट किस करवट मियाँ

कुछ ज़रूरत ज़िंदगी की, कुछ उसूलों के सवाल
चल रही है इन दिनों खुद से मेरी खट-पट मियाँ

मुश्किलें आएं तो हँसकर झेलना भी सीखिए
जिंदगी वर्ना लगेगी आपको झंझट मियाँ

तुम चले जाओ भले संसद में, ये मत भूलना
चूमनी है लौटकर कल फिर यही चौखट मियाँ

बदहवासी का ये आलम क्यूँ है बतलाओ ज़रा
लोग भागे जा रहे हैं किसलिए सरपट मियाँ

जिनसे हम उम्मीद करते हैं संवारेंगे इसे
कर रहे हैं मुल्क को वो लोग ही चौपट मियाँ .

गाँव आकर ढूँढता हूँ गाँव वाले चित्र वो
छाँव बरगद की किधर है ?है कहाँ पनघट मियाँ ?

पीढ़ियों को कौन समझाएगा कल पूछेंगी जब
लाज क्या होती है और क्या चीज़ है घूँघट मियाँ?

ओमप्रकाश यती

बादल गीत / कन्हैयालाल नंदन

बिन बरसे मत जाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना।

मेरा सावन रूठ गया है
मुझको उसे मनाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!

झुकी बदरिया आसमान पर
मन मेरा सूना।
सूखा सावन सूखा भादों
दुख होता दूना
दुख का
तिनका-तिनका लेकर
मन को खूब सजाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!

एक अपरिचय के आँगन में
तुलसी दल बोये
फँसे कुशंकाओं के जंगल में
चुपचुप रोए
चुप-चुप रोना भर असली है
बाकी सिर्फ़ बहाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना।

पिसे काँच पर धरी ज़िंदगी
कात रही सपने!
मुठ्ठी की-सी रेत
खिसकते चले गए अपने!
भ्रम के इंद्रधनुष रंग बाँटें
उन पर क्या इतराना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!

मेरा सावन रूठ गया है
मुझको उसे मनाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!

कन्हैयालाल नंदन

जूते / अनूप सेठी

कई हज़ार साल पहले जब एक दिन
किसी ने खाल खींची होगी इंसान की
उसके कुछ ही दिन बाद जूता पहना होगा
धरती की नंगी पीठ पर जूतों के निशान मिलते हैं

नुची हुई देह नीचे दबी होगी
धरती हरियाली का लेप लगाती है

जूते आसमान पाताल खोज आए
जूते की गंध दिमाग तक चढ़ आई है
कई हज़ार साल हो गए
नंगे पैर से टोह नहीं ली किसी ने धरती की

अनूप सेठी

वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम / ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
क्या लुत्फ़ में गुजरा है ग़रज़ रात का आलम

जाता हूँ जो मजलिस में शब उस रश्क-परी की
आता है नज़र मुझ को तिलिस्मात का आलम

बरसों नहीं करता तू कभू बात किसू से
मुश्ताक़ ही रहता है तेरी बात का आलम

कर मजलिस-ए-ख़ूबाँ में ज़रा सैर के बाहम
होता है अजब उन के इशारत का आलम

दिल उस का न लूटे कभी फूलों की सफ़ा पर
शबनम को दिखा दूँ जो तेरी गात का आलम

हम लोग सिफ़ात उस की बयाँ करते हैं वर्ना
है वहम ओ ख़िरद से भी परे ज़ात का आलम

देखा जो शब-ए-हिज्र तो रोया मैं के उस वक्त
याद आया शब-ए-वस्ल के औक़ात का आलम

हम ‘मुसहफ़ी’ क़ाने है ब-ख़ुश्क-ओ-तर-ए-गेती
है अपने तो नज़दीक मुसावत का आलम

ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

हक वफ़ा का जो हम जताने लगे / अल्ताफ़ हुसैन हाली

हक वफ़ा का जो हम जताने लगे
आप कुछ कह के मुस्कुराने लगे

हम को जीना पड़ेगा फुरक़त में
वो अगर हिम्मत आज़माने लगे

डर है मेरी जुबान न खुल जाये
अब वो बातें बहुत बनाने लगे

जान बचती नज़र नहीं आती
गैर उल्फत बहुत जताने लगे

तुम को करना पड़ेगा उज्र-ए-जफा
हम अगर दर्द-ए-दिल सुनाने लगे

बहुत मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम
हम भी आखिर को जी चुराने लगे

वक़्त-ए-रुखसत था सख्त “हाली” पर
हम भी बैठे थे जब वो जाने लगे

अल्ताफ़ हुसैन हाली

यार कब दिल की जराहत पे नज़र करता है / इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

यार कब दिल की जराहत पे नज़र करता है
कौन इस कूचे में जुज़ तेरे गुज़र करता है

अब तो कर ले निगह-ए-लुत्फ़ कि हो तोशा-ए-राह
कि कोई दम में ये बीमार सफ़र करता है

अपनी हैरानी को हम अर्ज़ करें किस मुँह से
कब वो आईने पे मग़रूर नज़र करता है

उम्र फ़रियाद में बर्बाद गई कुछ न हुआ
नाला मशहूर ग़लत है कि असर करता है

यार की बात हमें कौन सुनाता है ‘यक़ीं’
कौन कब गुल की दिवानों को ख़बर करता है

इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

बसंत के बारे में कविता / अनुज लुगुन

बसंत के बारे में कविता लिखने के लिए
एक कवि भँवरे की सवारी पर चढ़ा
और वह धम्म से गिर पड़ा,

एक कवि अपनी प्रेमिका की गोद में लेट कर
मौसम का स्वाद ले रहा था
और उसकी कविता स्वादहीन हो गई
उसकी कविता के पात्र और चरित्र मरे हुए पाए गए
उसकी भाषा जिसके माध्यम से वह
सबसे अच्छी कविता लिखने का दावा करता था
उसकी जुबान को लकवा हो गया,

बसंत के बारे में कविता लिखने से डरता हूँ कि
कहीं कोई भँवरा मेरे गीतों पर रीझ ना जाय
पपीहे भूल ना जाएँ
बाज के हमलों से बचने,
सबसे बुरे समय में
सबसे खुशनुमा और रंगों से सराबोर मौसम पर
कविता लिखते हुए डरता हूँ
अपनी भाषा और शब्दों के दिवालिया हो जाने से,

बसंत के बारे में
कविता लिखने से पहले
अपने बारे में सोचता हूँ
और पाता हूँ अपनी बहन को
बंदूक की नोंक से आत्मा के जख्म सीते हुए
उसके पास ही होती है एक उदास और ठहरी हुई नदी
जिसकी आँसुओं में जलमग्न होते हैं
हरवैये बैल और मुर्गियों के अंडे
मैं सुनता हूँ
अपने बच्चों और मवेशियों की डूबती हुई चीख
और वहीं देखता हूँ
अपने ही देश के दूसरे हिस्से के नागरिकों को
पिकनिक मनाते, जश्न मनाते और फोटो खिंचवाते हुए,
तब मेरी धरती और मेरे लोगों का खून
मेरी कलम की निब से बहने लगता है
मैं विद्रोह करता हुआ पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँच कर
पेड़ों से कहता हूँ कि विदा करो पतझड़ को
अब और देर नहीं
ले आओ मेरी माँ की आँखों में हँसी,

पेड़ मेरी बात को गौर से सुनते हैं और
ले आते हैं अपनी कोमल नई डालियों पर
छोटी-छोटी चिड़ियों और फूलों के गीत
जंगल में घुलने लगती है महुवाई गंध
गिलहरी नृत्य करते हुए
नेवता देती है पंडुकों को भी नृत्य करने के लिए
और पंडुक संकोचवश केवल गीत ही गा पाते हैं,
तब भी मैं लिख नहीं पाता हूँ
उनकी प्रशंसा में कोई कविता
बस उन्हें शुक्रिया कहता हूँ कि उनके बीच
अब भी हमारी पहचान बाकी है
और वे हमें हमारी भाषा से पहचानते हैं,
बसंत के देश में

बसंत के दिनों में
बसंत के बारे में कविता ना लिखना अपराध है
जैसे किसी देश में रहते हुए
उस देश के राजा के मिजाज की कविता न लिखना|
और तब मैं कवि नहीं अपराधी होता हूँ
जो बूढी माँ की आँखों में
डूबते अपने गाँव को बचाने के लिए
समुद्र की पागल लहरों से टकरा जाता हूँ,
बसंत के बारे में कविता लिखने बैठा मैं

बसंत के बारे में नहीं
अपने बारे में लिखता हूँ
और कविता के शब्द जेल की अँधेरी कोठरियों को तोड़ते हैं
उसके अंदर कैद पतझड़ को विदा करने के लिए।

अनुज लुगुन

पूर्णग्रहण / अनामिका

पूर्णग्रहण काल था ये!
बरसों की बिछड़ी हुई दो वृद्ध बहनें -
चाँद और धरती-
आलिंगनबद्ध खड़ी थीं -
निश्चल!

ग्रहण नहाने आई थीं औरतें
सरयू के तट पर
गठरी उनके दुखों की
उनकी गोद में पड़ी थी!

वृद्धा बहनों के इस महामिलन पर
उनके मन में थी सुगबुगाहट,
उलटी हथेली से पोंछती हुई आंसू
एक ने कहा दूसरी से-

"चरखे दोनों को
दहेज़ में मिले थे!
धरती की संततियों को एक अनंत चीर चाहिए!

तंगई बहुत है यहाँ, है न!
सो धरती में चरखे रुकने का नाम ही नहीं लेते!

हाँ, चाँद की बुढ़िया तो है निपूती,
किसके लिए चलाये भला चरखा,
क्या करे अपने इस टूटे कपास का?

कबी-कभी नैहर आती है
तो कुछ-कुछ बुन लाती है.

इतने बरस बीते,
जस-की-तस है चाँद की बुढ़िया!
देखो तो क्या कह रही है वह
धरती की ठुड्डी उठाकर-
कितनी सुंदर तुम हुआ करती थीं दीदी,
रह गई हो अब तो
झुर्रियों की पोटली!

यह बात मेरे भी दिल में लगी,
मैंने भी धरती की ठुड्डी उठाई
और उसे गौर से देखा! डूब गई थीं उसकी आँखें!
चूस लिया था हमने उसको तो पूरा ही!
काँप रही थी वह धीरे-धीरे! कितना बुखार था उसे!

इतने में दौड़ता हुआ आया मेरा बहन-बेटा,
उसके हाथों में भूगोल की किताब थी,

उसने कहा- मौसी,
टीचर कहती हैं,
नारंगी है पृथ्वी!

मैंने मुंह पर पानी छ्पकाकर कहा -
नारंगी जैसी लगती है वह,
लेकिन नारंगी नहीं है-

कि एक-एक फांक चूसकर
दूर फेंक दी जाए सीठी!"

अनामिका

डर / अच्युतानंद मिश्र

डर दर‍असल
एक अँधेरा है
जब सूरज
बुझने लगता है
अपनी माँ की गोद से
चिपटा एक बच्चा
डरने लगता है
माँ चुपके से
उठती है
जला देती है
लालटेन
और दूर
भगा देती है
अँधेरा

अच्युतानंद मिश्र

कह दो तो! / ओम निश्चल

धूप-सी नहीं खिल पाती देह / अमिता प्रजापति

देह के राग
कितने मुश्किल
कितने कठिन
विचार जब गुँथे हों
झाड़ियों की तरह
देह का खिलना कितना मुश्किल
झाड़ियों के अंधेरे में
धूप-सी नहीं खिल पाती देह

अमिता प्रजापति

मांद से बाहर / अभिनव अरुण

चुप मत रह तू खौफ से

कुछ बोल
बजा वह ढोल
जिसे सुन खौल उठें सब

ये चुप्पी मौत
मरें क्यों हम
मरे सब

हैं जिनके हाँथ रंगे से
छिपे दस्तानों भीतर

जो करते वार
हरामी वार टीलों के पीछे छिपकर
तू उनको मार सदा सौ बार
निकलकर मांद से बाहर

कलम को मांज
हो पैनी धार
सरासर वार सरासर वार
पड़ेंगे खून के छींटे

तू उनको चाट
तू काली बन
जगाकर काल
पहन ले मुंड की माला

मशअलें बुझ न जाएँ
कंस खुद मर न जाएँ
तू पहले चेत
बिछा दे खेत
भले तू एकल एकल

उठा परचम
दिखा दमखम
निरर्थक न हो बेकल
यहाँ कुरुक्षेत्र सजा है
युद्ध भी एक कला है

अभिनव अरुण

Saturday, October 25, 2014

सभ्यता / अविनाश

मैं थोड़ा सभ्य हूं
मुझसे ज्यादा सभ्य हैं वे लोग
जिनके साथ मैं काम करता हूं
वे मेरे उस्ताद नहीं हैं फिर भी
ऐसा जताते हैं जैसे
वे मुझे दुनिया में रहना सिखा रहे हैं
शायद यह सच हो
क्योंकि दुनिया में रहना कई लोगों का कई तरह से होता है
और रहने के हर तरीक़े में सभ्यताओं का अंतर होता है
वे चाहते हैं मैं उनकी तरह से रहूं
या अगर नहीं भी चाहते हैं
तो इतना तो जता ही देते हैं
कि रहने का उनका तरीक़ा ही है सबसे सभ्य

मैं... जो थोड़ा सभ्य हूं
उन बदतमीजों से कतई सभ्य
जिनकी बस्ती में अफ़सोस की तरह पैदा हुआ था मैं
और सब ऐसे खुश थे जैसे मैं हर घर में पैदा हुआ हूं
मैं उस जंगल से निकल आया
पर वह अब भी असभ्यों की बस्ती है
लोग ऐसे पास रहते हैं
जैसे देह और देह के बीच
थोड़ी दूरी रखने की
तहजीब ही न हो उनमें
घर में ऐसे घुस आएंगे जैसे उनका ही घर हो
वह भी बिना बताये
बिस्तर पर पांव समेट कर ऐसे बैठ जाएंगे
जैसे जनम-जनम का अपनापा हो
न कम बोलना, न संभल कर बोलना

पर वे सब लोग उनसे सभ्य हैं
जो ईसा पूर्व की किसी शताब्दी में
जानवरों से रखते थे दोस्ती

मैं सभ्य हूं क्योंकि मैं अपनी बस्ती के लोगों को
पीछे छोड़ आया हूं

पर यहां मेरी सभ्यता जाती रहती है
जब फिसलती हुई फर्श पर बेधड़क चलते हुए लोगों को
देखता हूं हंसते-मुस्कुराते
उनके बोलने का अर्थ समझ में न आने की रफ्तार में
जब वे बोलते हैं
मैं उनसे थोड़ा कम सभ्य
उनसे धीरे-धीरे बोलने की गुजारिश करता हू...
उन्हें लगता है एक गंवार ने उनकी बोली-बानी का अपमान किया है
‘बहरे कहीं के’

पर मैं न तो बहरा हूं न गंवार
गंवारों की बस्ती तो वह है जहां मैं रहता था

वे वाकई असभ्य हैं
मैं उनसे बहुत ज्यादा सभ्य
मेरे साथ काम करनेवाले लोग मुझसे थोड़ा अधिक सभ्य

आह अभिलाषा! मेरी महत्वाकांक्षा!
कितने सभ्य होते होंगे प्रधानमंत्री!

अविनाश

चीज़ें / कुमार सुरेश

अपनी दृष्टि से
ख़ुद के घर को देखने के
अपने ख़तरे थे

ख़तरों से नज़र बचा कर
हमने घर को
उनकी दृष्टि से देखा और
घर के हर कोने में एक
ज़रूरत को महसूसा

उनके दृष्टिकोण से
ज़रूरतें संतुष्ट करते-करते
हमने पाया, हम
अकेले और अकेले होते जा रहे हैं

अकेलापन मिटाने के लिये
हमने घर को चीज़ों और चीज़ों से भर लिया
हमारी ज़रूरतें, अकेलेपन और चीजों
के समानुपाती सम्बन्ध से

मजबूर होकर हमने
घर को अपनी दृष्टि से देखने की
कोशिश की, वहाँ
एक दूसरे की मौजूदगी से तटस्थ
चीज़ें और चीज़ें
मौजूद थीं ।

कुमार सुरेश

जाने किसके नाम / कैलाश गौतम

जाने किसके नाम
हवा बिछाती पीले पत्ते
रोज सुबह से शाम।


टेसू के फूलों में कोई मौसम फूट रहा
टीले पर रुमाल नाव में रीबन छूट रहा
बंद गली के सिर आया है
एक और इल्जाम।


क्या कहने हैं पढ़ने लायक सरसों के तेवर
भाभी खातिर कच्ची अमियाँ बीछ रहे देवर
नये -नये अध्याय खोलते
नए नए आयाम।


टूट रही है देह सुबह से उलझ रही आँखे
फिर बैठी मुंडेर पर मैना फुला रही पाँखे
मेरे आंगन महुआ फूला
मेरी नींद हराम।

कैलाश गौतम

और फिर आत्महत्या के विरुद्ध / कुमार अनुपम

यह जो समय है सूदखोर कलूटा सफ़ेद दाग से चितकबरे जिस्म वाला रात-दिन तकादा करता है
भीड़ ही भीड़ लगाती है ठहाका की गायबाना जिस्म हवा का और पिसता है छोड़ता हूँ उच्छवास...
उच्छवास...
कि कठिनतम पलों में जिसमें की ही आक्सीजन अंततः जिजीविषा का विश्वास...

कहता हूँ कि जीवन जो एक विडम्बना है गो कि सभ्यता में कहना मना है कहता हूँ कि सोचना ही पड़ रहा है कुछ और करने के बारे में क्योंकि कम लग रहा है अब तो मरना भी ।

कुमार अनुपम

अमल रद्दे अमल / अनवर ईरज

न्यूटंस लॉ
न कल ग़लत था
न आज है
न ही कल ग़लत साबित हो सकेगा
तुम ठीक कहते हो
कि हर अमल का
एक रद्दे अमल होता है
लेकिन ये भी ग़लत नहीं है
कि हर अमल का
एक जवाज़ भी होता है
दीवार पे गेंद
जितनी तेज़ी से
मारोगे
उतनी ही तेज़ी से
तुम्हारे पास लौट आएगी
तुम सच कहते हो
बिल्कुल सच कि
गुजरात
गोधरा का रद्दे अमल है
गोधरा
किसका रद्दे अमल था?

अनवर ईरज

तेरे दयार में कोई ग़म-आशना तो / ज़ैदी

तेरे दयार में कोई ग़म-आशना तो नहीं
मगर वहाँ के सिवा और रास्ता तो नहीं

सिमट के आ गई दुनिया क़रीब-ए-मय-ख़ाना
कोई बताओ यही ख़ाना-ए-ख़ुदा तो नहीं

लबों पर आज तबस्सुम की मौज मचली है
कोई मुझे किसी गोशे से देखता तो नहीं

बना लें राह इसी ख़ार-जार से हो कर
जुनून-ए-शौक़ का ये फ़ैसला बुरा तो नहीं

सबब हो कुछ भी तेरे इंफ़िआल का लेकिन
मेरी शिकस्त से पहले कभी हुआ तो नहीं

न रेग-ए-गर्म न काँटे न रह-ज़न न ग़नीम
ये रास्ता कहीं ग़ैरों का रास्ता तो नहीं

दयार-ए-सजदा में तक़लीद का रिवाज भी है
जहाँ झुकी है जबीं उन का नक़्श-ए-पा तो नहीं

ख़याल-ए-साहिल ओ फ़िक्र-ए-तबाह-कारी-ए-मौज
ये सब है फिर भी तमन्ना-ए-ना-ख़ुदा तो नहीं

अली जव्वाद 'ज़ैदी'

विद्रोह / केदारनाथ सिंह

आज घर में घुसा
तो वहां अजब दृश्य था
सुनिये- मेरे बिस्तर ने कहा-
यह रहा मेरा इस्तीफ़ा
मैं अपने कपास के भीतर
वापस जाना चाहता हूं

उधर कुर्सी और मेज़ का
एक संयुक्त मोर्चा था
दोनों तड़पकर बोले-
जी- अब बहुत हो चुका
आपको सहते-सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं
हमारे पेड़
और उनके भीतर का वह
ज़िंदा द्रव
जिसकी हत्या कर दी है
आपने

उधर आलमारी में बंद
किताबें चिल्ला रही थीं
खोल दो-हमें खोल दो
हम जाना चाहती हैं अपने
बांस के जंगल
और मिलना चाहती हैं
अपने बिच्छुओं के डंक
और सांपों के चुंबन से

पर सबसे अधिक नाराज़ थी
वह शॉल
जिसे अभी कुछ दिन पहले कुल्लू से ख़रीद लाया था
बोली- साहब!
आप तो बड़े साहब निकले
मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से
पुकार रहा है
और आप हैं कि अपनी देह
की क़ैद में
लपेटे हुए हैं मुझे

उधर टी.वी. और फोन का
बुरा हाल था
ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रहे थे
वे
पर उनकी भाषा
मेरी समझ से परे थी
-कि तभी
नल से टपकता पानी तड़पा-
अब तो हद हो गई साहब!
अगर सुन सकें तो सुन
लीजिए
इन बूंदों की आवाज़-
कि अब हम
यानी आपके सारे के सारे
क़ैदी
आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं

अब जा कहां रहे हैं-
मेरा दरवाज़ा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था.

केदारनाथ सिंह