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Thursday, October 30, 2014

एक कली / अमोघ

थी खड़ी कली, अधखिली कली,
रसभरी कली ।
जब विहँस पड़ी, तब निखर उठी,
आया कोई मधु का लोभी ।
गुन-गुन करता
मधु पी-पीकर
पागल बनता ।
फिर भी प्यासा, फिर भी आशा,
वह हाथ बढ़ा, आगे उमड़ा ।
कुछ कह-सुनकर
फिर मिला ओठ
रस पी-पीकर
गुनगुना उठा वह पंख उठा ।
पंखों के हिलडुल जाने से
कुछ इधर झड़े
कुछ उधर पड़े
वे परिमल कण
या आभूषण !
हिल उठी कली, वह फिर सम्हली
वह अब भी कुछ-कुछ थहराती
उड़ गया मधुप अति दूर-दूर
पर मौन खड़ी वह रह जाती
कितना निष्ठुर,
कितना निर्मम !
कितनी मस्ती !!
कितनी जल्दी !!!

रचनाकाल : पहली प्रकाशित रचना, विश्वमित्र साप्ताहिक, फरवरी 1945

अमोघ नारायण झा 'अमोघ'

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