क़ामत-ए-यार को हम याद किया करते हैं
सरो को सदक़े में आज़ाद किया करते हैं
कूच-ए-याद को हम याद किया करते हैं
जाके गुल ज़ार में फ़रियाद किया करते हैं
कूच-ए-याद को हम याद किया करते हैं
जाके गुल ज़ार में फ़रियाद किया करते हैं
रश्क से नाम नहीं लेते के सुन ले न कोई
दिल ही दिल में उस हम याद किया करते हैं
गुज़र हैं कूच-ए-काकुल से सबा के झोंके
निकहत-ए-गल को जो बर्बाद किया करते हैं
फूँक दें नाल-ए-सोज़ंा से अगर चाहें क़फ़्स
हम फ़क़त खातिर-ए-सैयाद किया करते है
तो वो सैयाद है जो वार के तुझ पर लाखों
ताइर-ए-रूह को आज़ाद किया करते हैं
इंतक़ाम इस का कहीं ले न फ़लक डरता हूं
झूठे वादों से़ जो वो शाद किया करते हैं
तेरा दीवान है क्या सामने उन के ‘नासिख’
जो के कुरान पे एराद किया करते हैं
Wednesday, October 29, 2014
क़ामत-ए-यार को हम याद किया करते हैं / इमाम बख़्श 'नासिख'
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