वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
क्या लुत्फ़ में गुजरा है ग़रज़ रात का आलम
जाता हूँ जो मजलिस में शब उस रश्क-परी की
आता है नज़र मुझ को तिलिस्मात का आलम
बरसों नहीं करता तू कभू बात किसू से
मुश्ताक़ ही रहता है तेरी बात का आलम
कर मजलिस-ए-ख़ूबाँ में ज़रा सैर के बाहम
होता है अजब उन के इशारत का आलम
दिल उस का न लूटे कभी फूलों की सफ़ा पर
शबनम को दिखा दूँ जो तेरी गात का आलम
हम लोग सिफ़ात उस की बयाँ करते हैं वर्ना
है वहम ओ ख़िरद से भी परे ज़ात का आलम
देखा जो शब-ए-हिज्र तो रोया मैं के उस वक्त
याद आया शब-ए-वस्ल के औक़ात का आलम
हम ‘मुसहफ़ी’ क़ाने है ब-ख़ुश्क-ओ-तर-ए-गेती
है अपने तो नज़दीक मुसावत का आलम
Sunday, October 26, 2014
वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम / ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'
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