आज मेरे शहर में
सावन की पहली फुहार पड़ी है,
कुछ वैसी ही, जिसमें
पार साल, हम साथ-साथ
भीगे थे…
मिट्टी आज भी वैसे ही
गंधा रही है,
हवा की मादकता भी/वैसी ही है,
और
कजलाया है अंबर भी आज
उसी शाम की तरह, जब
सावन की तेज बौछारों में
भीगते हुए/तुम्हारी आँखों में
उतर आई थी
सपनों की हरियाली
और
जीवन एक खुशनुमा
फूल-सा लगने लगा था...!
आज/आज भी
सब कुछ
वैसा ही है, मगर तुम
दूर/कहीं दूर
बहुत दूर हो...!
Monday, October 27, 2014
सावन / उमा अर्पिता
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