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Thursday, October 30, 2014

तुम्हारी गति और समय का अंतराल / अनुज लुगुन

ओ मेरी बेटी तुतरू !
मां से क्यों झगड़ती हो?
लो तुम्हारा खिलौना
तुम्हारा मिट्टी का घोड़ा
लो इस पर बैठो और जाओ
जंगल से जंगली सुअर का शिकार कर लाओ
ये लो धनुष अपने पिता का….,

ओ..ओ… तो तुम अब जा रही हो
घोड़े पर बैठ कर शिकार के लिए
तुम्हें पता है शिकार कैसे किया जाता है?
कैसे की जाती है छापामारी?
रुको…! अपने घोड़े को यहां रखो
बगल में रखो धनुष
और लो ये पेन्सिल और कागज़
पहले इससे लिखो अपना नाम
अपने साथी पेड़, पक्षी, फूल, गीत
और नदियों की आकृति बनाओ
फिर उस पर जंगल की पगडंडियों का नक्शा खींचो
अपने घर से घाट की दूरी का ठीक–ठीक अनुमान करो

और तब गांव के सीमांत पर खड़े पत्थरों के पास जाओ
उनसे बात करो, वे तुमसे कहेंगे तुम्हारे पुरखों की बातें
कि उन्हें अपने बारे में लिखने के लिए
कम पड़ गए थे कागज़
कि इतनी लम्बी थी उनकी कहानी
कि इतना पुराना था उनका इतिहास
कि इतना व्यापक और सहजीवी था उनका विज्ञान
तुम लिखो इन सबके बारे में
कि चांद, तारे, सूरज और आसमान की
गवाही नहीं समझ सके हत्यारे,
और तब हवा के बहाव और घड़ी का पता लगते ही
तुम दौड़ती हुई जाओ उस ओर
जहां जाड़े में जंगल का तापमान ज्यादा है
जहां तुम्हें तुमसे अलग गंध महसूस हो, शिकार वहीं है,

ओ मेरी बच्ची!
अब तुम्हारी गति और समय में अंतराल नहीं होगा
तुम्हारा निशाना अचूक होगा और दावेदारी अकाट्य.

अनुज लुगुन

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