मन कभी घर में रहा, घर से कभी बाहर रहा
पर तुम्हारी फूल-जैसी ख़ुशबुओं से तर रहा
बर्फ़ की पौशाक उजली है, मगर पर्वत से पूछ
बर्फ़ जब पिघली तो क्या बाक़ी रहा? पत्थर रहा
तेरे आँचल में सही, मेरी हथेली में सही
आँधियाँ आती रहीं, लेकिन दिया जलकर रहा
सिर्फ़ शब्दों का दिलासा माँगने वाले थे लोग
सोचिए तो क़र्ज़ किस-किस शख़्स का हम पर रहा
हौसला मरता नहीं है संकटों के दरमियाँ
हर तरफ़ काँटे थे लेकिन फूल तो खिलकर रहा
Friday, October 31, 2014
मन कभी घर में रहा, घर से कभी बाहर रहा / गिरिराज शरण अग्रवाल
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