हक वफ़ा का जो हम जताने लगे
आप कुछ कह के मुस्कुराने लगे
हम को जीना पड़ेगा फुरक़त में
वो अगर हिम्मत आज़माने लगे
डर है मेरी जुबान न खुल जाये
अब वो बातें बहुत बनाने लगे
जान बचती नज़र नहीं आती
गैर उल्फत बहुत जताने लगे
तुम को करना पड़ेगा उज्र-ए-जफा
हम अगर दर्द-ए-दिल सुनाने लगे
बहुत मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम
हम भी आखिर को जी चुराने लगे
वक़्त-ए-रुखसत था सख्त “हाली” पर
हम भी बैठे थे जब वो जाने लगे
Sunday, October 26, 2014
हक वफ़ा का जो हम जताने लगे / अल्ताफ़ हुसैन हाली
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