पूर्णग्रहण काल था ये!
बरसों की बिछड़ी हुई दो वृद्ध बहनें -
चाँद और धरती-
आलिंगनबद्ध खड़ी थीं -
निश्चल!
ग्रहण नहाने आई थीं औरतें
सरयू के तट पर
गठरी उनके दुखों की
उनकी गोद में पड़ी थी!
वृद्धा बहनों के इस महामिलन पर
उनके मन में थी सुगबुगाहट,
उलटी हथेली से पोंछती हुई आंसू
एक ने कहा दूसरी से-
"चरखे दोनों को
दहेज़ में मिले थे!
धरती की संततियों को एक अनंत चीर चाहिए!
तंगई बहुत है यहाँ, है न!
सो धरती में चरखे रुकने का नाम ही नहीं लेते!
हाँ, चाँद की बुढ़िया तो है निपूती,
किसके लिए चलाये भला चरखा,
क्या करे अपने इस टूटे कपास का?
कबी-कभी नैहर आती है
तो कुछ-कुछ बुन लाती है.
इतने बरस बीते,
जस-की-तस है चाँद की बुढ़िया!
देखो तो क्या कह रही है वह
धरती की ठुड्डी उठाकर-
कितनी सुंदर तुम हुआ करती थीं दीदी,
रह गई हो अब तो
झुर्रियों की पोटली!
यह बात मेरे भी दिल में लगी,
मैंने भी धरती की ठुड्डी उठाई
और उसे गौर से देखा! डूब गई थीं उसकी आँखें!
चूस लिया था हमने उसको तो पूरा ही!
काँप रही थी वह धीरे-धीरे! कितना बुखार था उसे!
इतने में दौड़ता हुआ आया मेरा बहन-बेटा,
उसके हाथों में भूगोल की किताब थी,
उसने कहा- मौसी,
टीचर कहती हैं,
नारंगी है पृथ्वी!
मैंने मुंह पर पानी छ्पकाकर कहा -
नारंगी जैसी लगती है वह,
लेकिन नारंगी नहीं है-
कि एक-एक फांक चूसकर
दूर फेंक दी जाए सीठी!"
Sunday, October 26, 2014
पूर्णग्रहण / अनामिका
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