तेरे हलके से तबस्सुम का इशारा भी तो हो
ता सर-ए-दार पहुँचने का सहारा भी तो हो
शिकवा ओ तंज़ से भी काम निकल जाते हैं
ग़ैरत-ए-इश्क़ को लेकिन ये गवारा भी तो हो
मय-कशों में न सही तिश्ना-लबों में ही सही
कोई गोशा तेरी महफ़िल में हमारा भी तो हो
किस तरफ़ मोड़ दें टूटी हुई किश्ती अपनी
ऐसे तूफ़ाँ में कहीं कोई किनारा भी तो हो
है ग़म-ए-इश्क़ में इक लज़्ज़त-ए-जावेद मगर
इस ग़म-ए-दहर से ऐ दिल कोई चारा भी तो हो
मय-कदे भर पे तेरा हक़ है मगर पीर-ए-मुग़ाँ
इक किसी चीज़ पे रिन्दों का इजारा भी तो हो
अश्क-ए-ख़ूनीं से जो सींचे थे बयाबाँ हम ने
उन में अब लाला ओ नसरीं का नज़ारा भी तो हो
जाम उबल पड़ते हैं मय लुटती है ख़ुम टूटते हैं
निगह-ए-नाज़ का दर-पर्दा इशारा भी तो हो
पी तो लूँ आँखों में उमड़े हुए आँसू लेकिन
दिल पे क़ाबू भी तो हो ज़ब्त का यारा भी तो हो
आप इस वादी-ए-वीराँ में कहाँ आ पहुँचे
मैं गुनहगार मगर मैं ने पुकारा भी तो हो
Wednesday, October 29, 2014
तेरे हलके से तबस्सुम का इशारा भी / ज़ैदी
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