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Saturday, October 25, 2014

विद्रोह / केदारनाथ सिंह

आज घर में घुसा
तो वहां अजब दृश्य था
सुनिये- मेरे बिस्तर ने कहा-
यह रहा मेरा इस्तीफ़ा
मैं अपने कपास के भीतर
वापस जाना चाहता हूं

उधर कुर्सी और मेज़ का
एक संयुक्त मोर्चा था
दोनों तड़पकर बोले-
जी- अब बहुत हो चुका
आपको सहते-सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं
हमारे पेड़
और उनके भीतर का वह
ज़िंदा द्रव
जिसकी हत्या कर दी है
आपने

उधर आलमारी में बंद
किताबें चिल्ला रही थीं
खोल दो-हमें खोल दो
हम जाना चाहती हैं अपने
बांस के जंगल
और मिलना चाहती हैं
अपने बिच्छुओं के डंक
और सांपों के चुंबन से

पर सबसे अधिक नाराज़ थी
वह शॉल
जिसे अभी कुछ दिन पहले कुल्लू से ख़रीद लाया था
बोली- साहब!
आप तो बड़े साहब निकले
मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से
पुकार रहा है
और आप हैं कि अपनी देह
की क़ैद में
लपेटे हुए हैं मुझे

उधर टी.वी. और फोन का
बुरा हाल था
ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रहे थे
वे
पर उनकी भाषा
मेरी समझ से परे थी
-कि तभी
नल से टपकता पानी तड़पा-
अब तो हद हो गई साहब!
अगर सुन सकें तो सुन
लीजिए
इन बूंदों की आवाज़-
कि अब हम
यानी आपके सारे के सारे
क़ैदी
आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं

अब जा कहां रहे हैं-
मेरा दरवाज़ा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था.

केदारनाथ सिंह

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