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Saturday, October 25, 2014

और फिर आत्महत्या के विरुद्ध / कुमार अनुपम

यह जो समय है सूदखोर कलूटा सफ़ेद दाग से चितकबरे जिस्म वाला रात-दिन तकादा करता है
भीड़ ही भीड़ लगाती है ठहाका की गायबाना जिस्म हवा का और पिसता है छोड़ता हूँ उच्छवास...
उच्छवास...
कि कठिनतम पलों में जिसमें की ही आक्सीजन अंततः जिजीविषा का विश्वास...

कहता हूँ कि जीवन जो एक विडम्बना है गो कि सभ्यता में कहना मना है कहता हूँ कि सोचना ही पड़ रहा है कुछ और करने के बारे में क्योंकि कम लग रहा है अब तो मरना भी ।

कुमार अनुपम

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