जब कँटीली झाड़ियों में
उग आता है
अचानक कोई फूल
मुझे लगने लगता है कि
ज़िंदगी की यातनाएँ
कम हुई हैं
पिता के फटे हुए कुर्ते
और बहन की
अतृप्त इच्छाओं से
आहत मन
जब सुनता है
मंदिर और मसज़िद के टूटने की बात
तो बेचैनियाँ बढ़ जाती हैं
आज की तारीख़ में
प्रासंगिक नहीं रह गया
कि सोचूँ
प्रेमिका के काले घुँघराले केश
कितने सुंदर हैं
और एक दूसरे के बिना
हम कितने अकेले
लेकिन इन सब के बावजूद
जब मेरे लगातार हँसते रहने से
दादी की मोतियाबिंदी आँखों में चमक
बढ़ जाती है
तो मेरा दर्द
ख़ुद-ब-ख़ुद
कम हो जाता है ।
Friday, October 17, 2014
दर्द से दवा तक / अनुराग अन्वेषी
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