ज़िक्र होता है जब क़यामत का तेरे जलवों की बात होती है
तू जो चाहे तो दिन निकलता है तू जो चाहे तो रात होती है
तुझको देखा है मेरी नज़रों ने तेरी तारीफ़ हो मगर कैसे
कि बने ये नज़र ज़ुबाँ कैसे कि बने ये ज़ुबाँ नज़र कैसे
न ज़ुबाँ को दिखाई देता है ना निग़ाहों से बात होती है
तू चली आए मुस्कुराती हुई तो बिखर जाएं हर तरफ़ कलियाँ
तू चली जाए उठ के पहलू से तो उजड़ जाएं फूलों की गलियाँ
जिस तरफ होती है नज़र तेरी उस तरफ क़ायनात होती है
तू निग़ाहों से ना पिलाए तो अश्क़ भी पीने वाले पीते हैं
वैसे जीने को तो तेरे बिन भी इस ज़माने में लोग जीते हैं
ज़िन्दगी तो उसी को कहते हैं जो गुज़र तेरे साथ होती है
Friday, October 24, 2014
ज़िक्र होता है जब क़यामत का / आनंद बख़्शी
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