कितने बरस से रहा रहा हूँ
इस शहर में मैं
फिर भी
अक्सर भटक ही जाता हूँ
इसकी टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में
ठीक वैसे ही जैसे एक कवि
कभी-कभी भटक जाता है
अपने बिम्बों और कथ्य के बीच
इस शहर में घूमना
कविता लिखने जैसा ही
अनुभव है मेरे लिए
जहाँ नदी और पहाड़ ही नहीं
छोटे-छोटे चाय-पान के खोखे
सड़कों पर चल रहे रिक्शे तांगे
इधर-उधर गप्प हांकते लोग
एक कविता ही रच रहे होते हैं
इसके और कविता के
अन्तर्सम्बन्धों को पहचानने में लगा
एक कवि
इससे ही पहचाना जाता है |
Friday, April 11, 2014
इससे ही पहचाना जाता है एक कवि / केशव तिवारी
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