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Friday, April 11, 2014

सब लोग लिये संग-ए-मलामत निकल आये / फ़राज़

सब लोग लिये संग-ए-मलामत निकल आये
किस शहर में हम अहल-ए-मुहब्बत निकल आये

अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो
आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आये

हर घर का दिया गुल न करो तुम के न जाने
किस बाम से ख़ुरशीद-ए-क़यामत निकल आये

जो दरपा-ए-पिन्दार हैं उन क़त्लगहों से
जाँ देके भी समझो के सलामत निकल आये

ऐ हमनफ़सों कुछ तो कहो अहद-ए-सितम की
इक हर्फ़ से मुम्किन है हिकायत निकल आये

यारो मुझे मसलूब करो तुम के मेरे बाद
शायद के तुम्हारा क़द-ओ-क़ामत निकल आये

अहमद फ़राज़

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