ऐ इश्क़! तूने अक्सर क़ौमों को खा के छोड़ा
जिस घर से सर उठाया उस घर को खा के छोड़ा
अबरार[1] तुझसे तरसाँ अहरार [2] तुझसे लरज़ाँ
जो ज़द[3] पे तेरी आया इसको गिरा के छोड़ा
रावों[4] के राज छीने, शाहों के ताज छीने
गर्दनकशों[5] को अक्सर नीचा दिखा के छोड़ा
क्या मुग़नियों[6] की दौलत,क्या ज़ाहिदों का तक़वा[7]
जो गंज[8] तूने ताका उसको लुटा के छोड़ा
जिस रहगुज़र पे बैठा तू ग़ौले-राह[9] बनकर
सनआँ-से[10] रास्तरौ[11] को रस्ता भुला के छोड़ा
Thursday, April 10, 2014
ऐ इश्क़ तूने अक्सर क़ौमों को खा के छोड़ा / अल्ताफ़ हुसैन हाली
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