ओ साहेब,
इन जंगलों को मत काटो
क्योंकि
जब हम हताश होते हैं
इनका संगीत हममें
जीवन डाल देता है
जब हम भूखे होते हैं
यही जंगल
हमारे साथ होता है
तुम महसूस कर सकते हो साहेब ?
कि इनका रोना
हमारे भीतर
कैसा उबाल पैदा करता होगा !
तुम ठहरे बड़े शहर के
बड़े शहराती
हम तो जाहिल, गवाँर और देहाती
पर साहेब,
कर रहे हैं प्रार्थना
तुम इन जंगलों में
जहाँ चाहो घूम आओ
पर हमारी आँखों में
काँटे न उगाओ ।
साहेब!
हम पढ़े-लिखे लोग नहीं हैं
पर शांति
हमें भी पसंद है
तुम क्यों चाहते हो दंगा
जंगल और पहाड़ों को कर नंगा ।
देखना साहेब!
जब जंगल ख़त्म हो जाएँगे
हम तुम्हारे शहर आएँगे
और तुम्हारा जीना
दूभर हो जाएगा ।
Wednesday, April 2, 2014
बदलता पर्यावरण / अनुराग अन्वेषी
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