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Tuesday, April 1, 2014

श्राद्ध-भोज / अरविन्द श्रीवास्तव

उदासी छँट चुकी थी
जैसे कई-कई दिनों बाद
छँटता है माघ में कुहासा

दुख भरे बारह दिन
और कोई फल पककर तैयार हो चुका हो
तेरहवें दिन
कि जैसे छप्पर पर लदे कोहड़े में
अचानक आ गई हो मिठास
कटहल कटने को हो तैयार
लहलहा उठा हो बाड़ी--झाड़ी का साग
और शुरू हो चुकी हो बच्चों की धमा-चौकड़ी
पिछवाड़ों में कुत्तों की चहलकदमी
भोज-भंडारे की हो-हो
दही-घर में बिल्लियों पर सख़्त नज़र
लपलपाती जीभ
सबने खाए श्राद्ध-भोज
उदासी ढोने का
मीठा फल !

अरविन्द श्रीवास्तव

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