चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है
तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया[1]
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है
मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है
तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी[2]
न वो सख़ी[3] न तुझे माँगने की आदत है
विसाल[4] में भी वो ही है फ़िराक़[5] का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है
ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सुबूर[6] उसे सोचने की आदत है
ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है
Saturday, March 1, 2014
चलो इश्क़ नहीं चाहने की आदत है / फ़राज़
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