तनिक ठहरूँ। चाँद उग आए, तभी जाऊँगा वहाँ नीचे
कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे। चाँद उग आए।
न उस की बुझी फीकी चाँदनी में दिखें शायद
वे दहकते लाल गुच्छ बुरूँस के जो
तुम हो।
न शायद चेत हो, मैं नहीं हूँ वह डगर गीली दूब से मेदुर,
मोड़ पर जिस के नदी का कूल है, जल है,
मोड़ के भीतर-घिरे हों बाँह में ज्यों-गुच्छ लाल बुरूँस के उत्फुल्ल।
न आए याद, मैं हूँ किसी बीते साल के सीले कलेंडर की
एक बस तारीख, जो हर साल आती है।
एक बस तारीख-अंकों में लिखी ही जो न जावे
जिसे केवल चंद्रमा का चिह्न ही बस करे सूचित-
बंक-आधा-शून्य; उलटा बंक-काला वृत्त,
यथा पूनो-तीज-तेरस-सप्तमी,
निर्जला एकादशी-या अमावस्या।
अँधेरे में ज्वार ललकेगा-
व्यथा जागेगी। न जाने दीख क्या जाए जिसे आलोक फीका सोख लेता है।
तनिक ठहरूँ। कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे
तभी जाऊँ वहाँ नीचे-चाँद उग आए।
Friday, October 25, 2013
सागर किनारे / अज्ञेय
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