Pages

Thursday, October 3, 2013

इस अबर में यार से जुदा हूं / इमाम बख़्श 'नासिख'

इस अबर में यार से जुदा हूं
बिजल की तरह तड़प रहा हूं

दिन-रात तसव्वुर परी है
दीवाना में इन दिनों बना हूं

गो बैठ रहा हूं इक जा लैक
पामाल बसान-ए-नक़्श-ए-पा हूं

ऐ अबर-ए-शब-फिराक़ दे साथ
श्रोने पर मुस्तअद हुआ हूं

सर रख के कभी वो सो गया था
अब तक जानो को सूंघता हूं

वहशत ने निकाला उस गली से
कांटों पर उस को खींचता हूं

आईना दिल में है तेरा अक्स
दिन-रात मैं तुझ को देखता हूं

मुमकिन नहीं है इजतमा-ए-ज़दीन
तो बुत है बंद-ए-ख़ुदा हूं

है महर-ओ-वफ़ा सरासर इस में
नासिख़ क्यों कर उसे न चाहूं

इमाम बख़्श 'नासिख'

0 comments :

Post a Comment