Pages

Wednesday, October 23, 2013

रफ़्ता-रफ़्ता द्वार से यूँ ही गुज़र जाती है रात / अश्वघोष

रफ़्ता-रफ़्ता द्वार से यूँ ही गुज़र जाती है रात
मैंने देखा, झील पर जाकर बिखर जाती है रात

मैं मिलूँगा कल सुबह इस रात से जाकर ज़रूर
जानता हूँ, बन-सँवरकर कब, किधर जाती है रात

हर क़दम पर तीरगी है, हर तरफ़ इक शोर है
हर सुबह एकाध रहबर क़त्ल कर जाती है रात

जैसे बिल्ली चुपके-चुपके सीढ़ियाँ उतरे कहीं
आसमाँ से ज़िंदगी में यूँ उतर जाती है रात

एक चिड़िया कुछ दिनों से पूछती है अश्वघोष
सिर्फ़ इस आहट को सुनके क्यों सिहर जाती है रात !

अश्वघोष

0 comments :

Post a Comment