गुलों के बीच में मानिन्द ख़ार मैं भी था
फ़क़ीर ही था मगर शानदार मैं भी था
मैं दिल की बात कभी मानता नहीं फिर भी
इसी के तीर का बरसों शिकार मैं भी था
मैं सख़्त जान भी हूँ बे नेयाज़ भी लेकिन
बिछ्ड़ के उससे बहुत बेक़रार मैं भी था
तू मेरे हाल पर क्यों आज तन्ज़ करता है
इसे भी सोच कभी तेरा यार मैं भी था
ख़फ़ा तो दोनों ही एक दूसरे से थे लेकिन
निदामत उसको भी थी शर्मसार मैं भी था
Tuesday, October 1, 2013
गुलों के बीच में मानिन्द ख़ार मैं भी था / अनवर जलालपुरी
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