Pages

Tuesday, October 1, 2013

नाता-रिश्ता-4 / अज्ञेय

वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो

और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है?
हाँ-- बातों के बीच की चुप्पियों में
हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में
तीर्थों की पगडंडियों में
बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की
दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में !

अज्ञेय

0 comments :

Post a Comment