समदर्शी फिर साम्य रूप धर जग में आया,
समता का सन्देश गया घर-घर पहुँचाया ।
धनद रंक का ऊँच नीच का भेद मिटाया,
विचलित हो वैषम्य बहुत रोया चिल्लाया ।।
काँटे बोए राह में फूल वही बनते गए,
साम्यवाद के स्नेह में सुजन सुधी सनते गए ।।
ठहरा यह सिद्धान्त स्वत्व सबके सम हों फिर,
अधिक जन्म से एक दूसरे कम क्यों हो फिर ।
पर सेवा में लगे लगे क्यों बेदम हों फिर,
जो कुछ भी हो सके साथ ही सब हम हों फिर ।।
सांसारिक सम्पत्ति पर सबका सम अधिकार हो,
वह खेती या शिल्प हो विद्या या व्यापार हो ।।
Sunday, October 19, 2014
साम्यवाद / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
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