जला रहा हूँ
कई यूगों से
मैं उस को ख़ुद ही जला रहा हूँ
जला रहा हूँ कि उसे के जलमे में
जीत मेरी है मात उस की
जला रहा हूँ बड़े पिण्डाल में सजा कर
जला रहा हूँ
मिटा रहा हूँ
मगर वो
मेरी ही मन की अँधेर नगरी में जी रहा हूँ
वो मेरी लंका में अपने पाँव पसारे बैठा
कई युगों से
मुझै मुसलमल चिड़ा रहा है
Saturday, October 18, 2014
जला रहा हूँ / ख़ालिद कर्रार
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)


0 comments :
Post a Comment