ग़म का नामोनिशाँ नहीं होता
ऐसा कोई जहाँ नहीं होता
वहम होता न कुछ गुमाँ होता
गर कोई दरमियाँ नहीं होता
गर न पैरों तले ज़मीं रहती
सर पे भी आसमाँ नहीं होता
तेरे होने का ख़ुद को खोने का
हमको क्या-क्या गुमाँ नहीं होता
तू न होता अगर ज़माने में
कोई दिलकश समाँ नहीं होता
ख़ुद को मिलना ही हो गया मुश्किल
तू भी आख़िर कहाँ नहीं होता
Monday, October 20, 2014
ग़म का नामोनिशाँ नहीं होता / अज़ीज़ आज़ाद
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