थके मज़दूर रह-रह कर जुगत ऐसी लगाते हैं
कभी खैनी बनाते हैं कभी बीड़ी लगाते हैं
जहाँ नदियों का पानी छूने लायक़ भी नहीं लगता
हमारी आस्था है हम वहाँ डुबकी लगाते हैं
ज़रूरतमंद को दो पल कभी देना नहीं चाहा
भले हम मन्दिरों में लाइनें लम्बी लगाते हैं
यहाँ पर कुर्सियाँ बाक़ायदा नीलाम होती हैं
चलो कुछ और बढ़कर बोलियाँ हम भी लगाते हैं
नहीं नफ़रत को फलने-फूलने से रोकता कोई
यहाँ तो प्रेम पर ही लोग पाबन्दी लगाते हैं
Thursday, October 2, 2014
थके मजदूर रह-रह कर... / ओमप्रकाश यती
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