ज़रा सी देर को आए थे ख़्वाब आँखों में
फिर उस के बाद मुसलसल अज़ाब आँखों में
वो जिस के नाम की निस्बत से रौशन था वजूद
खटक रहा है वही आफ़ताब आँखों में
जिन्हें मता-ए-दिल-ओ-जाँ समझ रहे थे हम
वो आईने भी हुए बे-हिजाब आँखों में
अजब तरह का है मौसम के ख़ाक उड़ती है
वो दिन भी थे के खिले थे गुलाब आँखों में
मेरे ग़ज़ाल तेरी वहशतों की ख़ैर के है
बहुत दिनों से बहुत इज़्तिराब आँखों में
न जाने कैसी क़यामत का पेश-ख़ेमा है
ये उलझनें तेरी बे-इंतिसाब आँखों में
जवाज़ क्या है मेरे कम-सुख़न बता तो सही
ब-नाम-ए-ख़ुश-निगही हर जवाब आँखों में
Wednesday, October 1, 2014
ज़रा सी देर को आए थे ख़्वाब आँखों में / इफ़्तिख़ार आरिफ़
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