सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ
तेरा फ़साना तुझी को सुनाता रहता हूँ
मैं अपने आप से शर्मिंदा हूँ न दुनिया से
जो दिल में आता है होंटों पे लाता रहता हूँ
पुराने घर की शिकस्ता छतों से उकता कर
नए मकान का नक़्शा बनाता रहता हूँ
मेरे वजूद में आबाद हैं कई जंगल
जहाँ मैं हू की सदाएँ लगाता रहता हूँ
मेरे ख़ुदा यही मसरूफ़ियत बहुत है मुझे
तेरे चराग़ जलाता बुझाता रहता हूँ
Thursday, October 23, 2014
सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ / 'असअद' बदायुनी
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