जून में इनर ग्राउंड कैसा दीखता हेागा
इसकी कल्पना बहुत मुश्किल थी
अप्रैल की आख़िरी तारीख़ को मिले
परीक्षाफल की खुशी को समेटे हम दो महीने
बाक़ी दस महीनों को भुला देना चाहते थे
मई और जून में कई मौके आते
जब जाया जा सकता था शहर
हम कभी शहर न जाने की कसमें खाते
बिसराए तेज़ धूप में सब कुछ
करते रहते अमराइयों में लेटे कोयलिया आम का जुगाड़
तमाम उठा-पटक के बाद घर के कबाड़ से
हर गर्मियों में ढूँढी जाती एक डिब्बी
नमक मिर्च और धनिया के मसाले के लिए यह ज़रूरी थी
बिजली के मोटे जर्मन तार को घिसकर
बनाते एक तेज़ चाकू और एक रिंग होती लोहे की
चलती का नाम गाड़ी
चाकू रिंग और मसाले की डिब्बी
गर्मियों के बेहतरीन साथी होते
और इसके बाद पाने के लिए कुछ नहीं बचता
उस मिशन स्कूल के प्रभु ईसू के संदेश
हम भुला देना चाहते पिछली कक्षा की पुस्तकों की तरह
तमाम गर्मियों में
हमारे सपनों से स्कूल गायब रहता
मगर पहली बौछार के साथ दस महीनों की
पढ़ाई की संपूर्ण घृणा उजागर होती
शहर पहुँचते ही सबसे पहले दीखता ईनर ग्राउंड
और उसके ठीक सामने मिशन स्कूल
पहली जुलाई से हमारी पीठ पर सवार।
Tuesday, October 21, 2014
इनर ग्राउंड / अनिल करमेले
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