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Thursday, October 23, 2014

खानकाह में सूफी मुँह में छुपाए बैठा है / 'कैफ़' भोपाली

खानकाह में सूफी मुँह में छुपाए बैठा है
गालिबन ज़माने से मात खाए बैठा है

कत्ल तो नहीं बदला कत्ल की अदा बदली
तीर की जगह कातिल साज़ उठाए बैठा है

उन के चाहने वाले धूप धूप फिरते हैं
गैर उन के कूचे में साए साए बैठा है

वाह आशिक-ए-नादाँ काएनात ये तेरी
इक शिकस्ता शीशे को दिल बनाए बैठा है

दूर बारिश ऐ गुल-चीं वा है दीदा-ए-नर्गिस
आज हर गुल-ए-रंगीं खार खाए बैठा है

'कैफ़' भोपाली

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