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Saturday, October 25, 2014

रमईयावस्तावईया / गिरिराज किराडू

कहाँ रहते हो भाई कभी हमारी ख़बर भी ले लिया करो अब तुमसे कोई शिकायत नहीं रही
हमें आरी से चीर देने वाले दुख में महज एक उजली सूक्ति एक गूढ़-मूढ़ सत्य देखने की और उसे हमारे दुख के नहीं अपनी गूढ़-मूढ़ नज़र के सदके करने की तुम्हारी उस बेरहम अदा को भी अपनी याद में निर्मल कर लिया है
जितने की तुम किताबें खरीदते हो उतने का अन्न मयस्सर नहीं
क्या खा के लड़ेंगे तुमसे हम

आईने के अजायबघर में रहते रहते
जब सब गूढ़-मूढ़ छू मंतर हो जाये
अपनी याद आरी बन जाये
सीधे इस गली चले आना भाई
यहाँ बच्चों के शव एक नक्शा खींचते है
दिल के चारों ओर
वतन का
लगातार ख़ाक गिरती है बदन पर
हमारी कब्रें और रूहें तक महफ़ूज नहीं

आईनादारी का एक तमाशा इधर भी है
नींद का एक टुकड़ा इधर भी है
एक मुट्ठी सही अन्न इधर भी है
चुल्लू भर सही पानी इधर भी है

अपनी याद जब आरी बन जाये
सीधे इस गली चले आना भाई
खुशहाली का मैला सही
सपना इधर भी है

गिरीराज किराडू

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