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Tuesday, October 21, 2014

चक्रान्त शिला - 21 / अज्ञेय

यही, हाँ, यही- कि और कोई बची नहीं रही

उस मेरी मधु-मद भरी रात की निशानी :
एक यह ठीकरे हुआ प्याला कहता है-
जिसे चाहो तो मान लो कहानी।

और दे भी क्या सकता हूँ हवाला

उस रात का : या प्रमाण अपनी बात का?
उस धूपयुक्त कम्पहीन अपने ही ज्वलन के हुताशन के
ताप-शुभ्र केन्द्र-वृत्त में उस युग-साक्षात् का?

यों कहीं तो था लेखा : पर मैं ने जो दिया, जो पाया,

जो पिया, जो गिराया, जो ढाला, जो छलकाया,
जो नितारा, जो छाना,
जो उतारा, जो चढ़ाया

जो जोड़ा, जो तोड़ा, जो छोड़ा-

सब का जो कुछ हिसाब रहा, मैं ने देखा
कि उसी यज्ञ-ज्वाला में गिर गया।
और उसी क्षण मुझे लगा कि अरे, मैं तिर गया

-ठीक है, मेरा सिर फिर गया।

मैं अवाक् हूँ, अपलक हूँ।
मेरे पास और कुछ नहीं है
तुम भी यदि चाहो तो ठुकरा दो:

जानता हूँ कि मैं भी तो ठीकरा हूँ।

और मुझे कहने को क्या हो
जब अपने तईं खरा हूँ?
अज्ञेय

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