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Saturday, February 22, 2014

नया कवि: आत्म स्वीकार / अज्ञेय

किसी का सत्य था,
मैंने संदर्भ से जोड़ दिया।
कोई मधु-कोष काट लाया था,
मैंने निचोड़ लिया।
किसी की उक्ति में गरिमा थी,
मैंने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया।
कोई हुनरमंद था :
मैंने देखा और कहा, 'यों!'
थका भारवाही पाया-
घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों?'
किसी की पौध थी,
मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली,
किसी की लगायी लता थी,
मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली
किसी की कली थी :
मैंने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी।
मैंने मुँह से छीन ली।
यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ :
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द सराहते हुए पढ़ें।
पर प्रतिमा- अरे वह तो
जैसी आपको रुचे आप स्वयं गढ़ें।

अज्ञेय

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