बस, बात कुछ बनी नहीं
कह कर चल दिया
सुदूर पूरब की ओर
मेरे गाँव का गवैया ।
उसे विश्वास है कि
अपने सरगम का आठवाँ स्वर
वह ज़रूर ढूँढ़ निकालेगा
पश्चिम की बजाय पूरब से ।
वह सुन रहा है
एक अस्पष्ट सी आवाज़
नालन्दा के खण्डहरां में या
फिर वहीं कहीं जहाँ
लटका है चेथरिया पीर ।
धुन्ध के बीच समय को आँकता
ठीक अपने सिर के ऊपर
आधे चाँद की टोपी पहनकर
अब वह ‘नि’ के बाद ‘शा’
देख रहा है
और उसकी चेतना
अंकन रही है ‘सहर’
जहाँ उसे मिल सकेगा
वह आठवाँ स्वर ।
Thursday, October 24, 2013
उम्मीद / अनिल त्रिपाठी
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