Pages

Wednesday, October 2, 2013

ख़ाक चेहरे पे मल रहा हूँ मैं / अज़ीज़ 'नबील'

ख़ाक चेहरे पे मल रहा हूँ मैं
आसमाँ से निकल रहा हूँ मैं

चुपके चुपके वो पढ़ रहा है मुझे
धीरे धीरे बदल रहा हूँ मैं

मैं ने सूरज से दोस्ती की है
शाम होते ही ढल रहा हूँ मैं

एक आतिश-कदा है ये दुनिया
जिस में सदियों से जल रहा हूँ मैं

रास्तों ने क़बाएँ सी ली हैं
अब सफ़र को मचल रहा हूँ मैं

अब मेरी जुस्तुजू करे सहरा
अब समंदर पे चल रहा हूँ मैं

ख़्वाब आँखों में चुभ रहे थे 'नबील'
सो ये आँखें बदल रहा हूँ मैं

अज़ीज़ 'नबील'

0 comments :

Post a Comment