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Wednesday, October 23, 2013

चक्रान्त शिला – 2 / अज्ञेय

वन में एक झरना बहता है

एक नर-कोकिल गाता है
वृक्षों में एक मर्मर
कोंपलों को सिहराता है,


एक अदृश्य क्रम नीचे ही नीचे

झरे पत्तों को पचाता है।
अंकुर उगाता है।
मैं सोते के साथ बहता हूँ,
पक्षी के साथ गाता हूँ,


वृक्षों के कोंपलों के साथ थरथराता हूँ,

और उसी अदृश्य क्रम में, भीतर ही भीतर
झरे पत्तों के साथ गलता और जीर्ण होता रहता हूँ
नये प्राण पाता हूँ।


पर सब से अधिक मैं

वन के सन्नाटे के साथ मौन हूँ-
क्योंकि वही मुझे बतलाता है कि मैं कौन हूँ,
जोड़ता है मुझ को विराट् से


जो मौन, अपरिवर्त है, अपौरुषेय है

जो सब को समोता है।
मौन का ही सूत्र किसी अर्थ को मिटाये बिना
सारे शब्द क्रमागत सुमिरनी में पिरोता है।
अज्ञेय

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